शुक्रवार, 18 अगस्त 2017

राहत के लिए तो शुक्रिया, लेकिन यह कोई राह नहीं है

इस समय बहुत बड़ी आबादी पानी के घेरे में है। ये लोग कष्ट में हैं। इनके चित्र, क्लिपिंग्स मनोरंजक दृश्य नहीं हैं।
अकेले बिहार भारत की आधी आबादी के लिए अन्न पैदा कर सकता है, ऐसा हरित क्रांति के पुरोधा ने केरल के त्रिशूर विश्वविद्यालय के एक दीक्षांत समारोह में आज से कई साल पहले कहा था। शर्त्त यह कि पानी की अनियंत्रित अतिरिक्त उपलब्धता को प्रबंधित किया जा सके। यह न किया जा सका। नतीजा बहुत बड़ी आबादी अफरा-तफरी में है। अपने टूटली मड़ैया या बड़के पक्का मकान से बेदखल! राहत के इंतजार में। इंतजार किसी को कुछ दे जाता है, तो किसी को बेबसी के भँवर से निकाल नहीं पाता है। जान-माल की क्षति का कोई आकलन हो नहीं सकता। सारे आर्थिक क्रिया-कलाप, पढ़ाई-लिखाई, शिक्षोन्मुखी एवं रोजगारोन्मुखी परीक्षाएँ, जीवन में उल्लास की तलाश की हर प्रक्रिया स्थगित! बस एक लूट-सी मची रहती है, हर तरह की। और ख्वाहिश! बस एक ही ख्वाहिश, राहत! सुनने में बुरा लगेगा, कहने में भी बुरा लग रहा है लेकिन, यह सच हैकि राहत के भरोसे रहते-रहते हुए धीरे-धीरे राहत आदत में बदलने लगती है और राह पाने की कोई सुध नहीं रह जाती है। राहत कोई राह नहीं है। लानत ! उफ लानत।
जब बाढ़ का पानी उतरता है तो अपने पीछे लंबा हाहाकार छोड़ जाता है, यह अक्सर चित्र और क्लिपिंग्स में नहीं समाता, न दृश्य हाता है और न श्रव्य बस भोग्य होता है, जो भोगता है वही जानता है!
जब उतर जाये बाढ़ का पानी और बचा रह जाये आँख या आकाओं के किरदार में थोड़ा पानी तो कहना जरूरी होगा कि राहत के लिए तो शुक्रिया, लेकिन यह कोई राह नहीं है! हमें राहत की नहीं, अब राह की जरूरत है! कह पायेंगे हम! कहाँ कह पाते हैं, क्या पता कह भी दें। ध्यान रहे कहना है, सिर्फ बोलना पर्याप्त नहीं होगा! क्या!

शनिवार, 15 अक्टूबर 2016

घुटनों के बल परफूल, घुटनों के बल!

असली साहित्य भी वही है जिसे कैंपस में स्वीकृति है। साहित्यवाले/वाली तो फिर भी कैंपस के बाहर किसी तरह, उखड़ी-उखड़ी ही सही, साँस ले लेते /लेती हैं। अपनी बैठक, उठक-बैठक भी, कर लेते/लेती हैं। जैसे-तैसे जी लेते/लेती हैं। समाज में आते-जाते रहते /रहती हैं। लेकिन, समाजशास्त्रवाले /वाली तो, कैंपस के अवरोधकों को लाँघकर, समाज में जा ही नहीं पाते /पाती हैं। इतिहासवाले/वाली, कोशिश करते/करती हैं तो पुराण और मिथजीवी उन्हें ऐसा सिकोड़ देते हैं कि वे खुद को भी ठीक-ठीक पहचानने की स्थिति में नहीं रह जाते/जाती हैं। दर्शनशास्त्रवाले/वाली क्या करें! विचार की थाली सजाकर कैंपस की चौहद्दी से बाहर निकलते /निकलती हैं तो उनकी ऐसी उतारी जाती है कि बस दर्शनीय होकर रह जाते/जाती हैं! बहुत घुटन है परफूल। घुटन को घुटनों के बल होकर महसूस करो, शायद अक्ल ठिकाने आये! आखिर बाल-बच्चोंवाले गृहस्थ हो! गृहस्थी का ख्याल करो। और क्या कहें सिरीमान परफूल मोशाय! समझ रहे हैँ न!

शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

लेखक, अगर आदमी है. तो वह किसी का 'आदमी' नहीं होता

प्रभाकर श्रोत्रिय को श्रद्धांजलि
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लेखक, अगर आदमी है, तो वह किसी का ‘आदमी’ नहीं होता
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प्रभाकर श्रोत्रिय भारतीय भाषा परिषद के निदेशक बनकर कोलकाता आये थे। उनके यहाँ आने के पहले एक खबर यह आई या उड़ी कि वह आरएसएस का आदमी है। किसी लेखक के बारे में यह उड़ा देना कि वह फलाना का आदमी है कितना त्रासद होता है, इसका कुछ अनुभव तो मुझे रहा है। यकीन करने या नहीं करने का सवाल नहीं था, लेकिन सावधान रहने की ‘जरूरत’ थी। वागर्थ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ और धीरे-धीरे उनके बारे में अपनी धारणा बनने लगी। सावधानी शिथिल होती गई। यह बात पुष्ट होती गई कि लेखक असल में उस अर्थ में किसी का ‘आदमी’ नहीं होता, नहीं हो सकता है। मैंने उन्हें एक बेहतर संपादक और गंभीर लेखक के रूप में ही जाना। अपनी कई बुनियादी दृष्टि भिन्नताओं के बावजूद, उनके प्रति मन में सम्मान का जो भाव जगने और बनने लगा, आज भी सुरक्षित है। आज उनके नहीं रहने से मन खिन्न और दुःखी है कि हिंदी ने एक कुशल संपादक लेखक को खो दिया।
उन से जुड़ी कई बातें ध्यान में आ रही हैं। प्रीतिकर भी, अप्रीतिकर भी। लेकिन दो प्रसंग का उल्लेख करने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ। वागर्थ में तो मैं लगभग लगातार लिख ही रहा था। स्वभावतः, भारतीय भाषा परिषद आना जाना लगा रहता था। ऐसे ही किसी काम से एक बार उन से मिलने भारतीय भाषा परिषद गया। उनके सहायक ने बताया आज मुलाकात नहीं हो सकती है। बहुत व्यस्त हैं। मेनेजमेंट की मीटिंग चल रही है। मिलना जरूरी था। संयोग से उसी समय वे बाहर निकले, तो मुझे देखा और अपने केबिन में बुला लिया। मैं ने कहा कि आप मेनेजमेंट की मीटिंग में व्यस्त हैं, मैं फिर कभी आ जाऊंगा! उन्होंने कहा कि मैं कोई मेनेजमेंट नहीं हूँ। उन्हें मेरी राय की जरूरत होगी तो वे दस मिनट इंतजार कर सकते हैं। आप चाय पी कर जाइये। चाय आने में जाहिर है कम-से-कम दस मिनट तो लगा ही होगा। इस बीच दो बार बुलावा आया। उन्होंने कहला भेजा कि एक लेखक आये हैं, थोड़ा इंतजार करें। वे आराम से चाय पीते रहे। वे दबाव में नहीं थे, दबाव में तो मैं था।
तब मोबाइल का चलन आम नहीं हुआ था, मेरे पास तो नहीं था। उन्होंने मेरे दफ्तर के फोन पर दृढ़ता से कहा कि तुरत मिलना चाहता हूँ। मैं जब उनके पास पहुँचा तो वे ऊपर से बहुत दुःखी और भीतर से बहुत क्रुद्ध थे। कुल मिलाकर कातर! कवि मान बहादुर सिंह  की हत्या से हम सभी स्तब्ध थे। उन्होंने कहा कि मान बहादुर सिंह  की कविता पर एक पृष्ठ की टिप्पणी लिखकर अभी दीजिये। वागर्थ के लिए। मेरे पास मान बहादुर सिंह की कविताएँ तत्काल उपलब्ध नहीं थी। पुस्तकालय में उनकी कविताओं के होने की संभावनाओं से वे पहले निराश हो चुके थे। कुछ कविताएँ वागर्थ की फाइल में थी। एक दो पत्रिकाओं में हम साथ-साथ छपे थे। लेकिन उन पत्रिकाओं के उन अंकों की प्रति के घर में होने के प्रति मैं आश्वस्त नहीं था। फिर भी मैं ने कहा कि अभी मैं इन कविताओं को ले जा रहा हूँ। घर में देख लेता हूँ। कल सुबह टिप्पणी दे जाने की कोशिश करूँगा। वे पहले तो चुप रहे, फिर बोले। ठीक है, ले जाइये। कल सुबह तक टिप्पणी नहीं मिली तो वागर्थ में एक पृष्ठ खाली जायेगा, इस उल्लेख के साथ की टिप्पणी नहीं उपलब्ध हो सकी। मैं ने जैसे-तैसे टिप्पणी लिखी, उन्हें समय पर दी और वह वागर्थ में छपी। मान बहादुर सिंह  की हत्या के संदर्भ में उनकी लेखकीय भंगिमा की करुणा और संपादकीय मुद्रा की दृढ़ता को मैं कभी भुला नहीं पाया। बाद के दिनों की बात! मान बहादुर सिंह के हत्यारे राज्य सरकार की कृपा से खुले आम दहाड़ रहे थे। हिंदी के एक बहु ख्यात कवि, बहुत सारे लेखकों के अनुरोध को ठुकराकर, राज्य सरकार से पुरस्कार लाभ कर रहे थे। नाम! जाने दीजिये यह अवसर नहीं है। कहना सिर्फ इतना है कि लेखक, अगर आदमी है, तो वह किसी का ‘आदमी’ नहीं होता।

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

एक चुल्लू पानी का है पता मालूम

हुस्न का गरूर, परवान चढ़े तो बस अब इश्क है, मजलूम
मुहब्बत झूठी ही सही, पर हूँ तो उसका ही बेतार तरन्नुम

सुना है, इस फागुन में कुछ अधिक ही खपत में है माजूम
हँसनेवाला, रोनेवाला कौन होश में है, है किसको मालूम

सहमा हूँ, कह न दे कोई प्यारे मुल्क को उम्मत-ए-मरहूम
बात गहरी नहीं उतनी एक चुल्लू पानी का है पता मालूम

गर्जन भी है, वर्जन भी है, अर्जन कहाँ बस यह नहीं मालूम
सीना जितना ही बड़ा उदर, डकार
में निकला नहीं हालूम

जल, जंगल, जमीन सब तो बस गोविंद के हैं, है ना मालूम
इतना मालूम है जब, तब गोविंद कौन बस यह नहीं मालूम

सारी अक्ल लगाई मादरे जुबान की अहमियत में, मालूम
मेरा वतन अब मदारी जुबान का है कायल कैसे नामालूम

मुहब्बत झूठी ही सही, पर हूँ तो उसका ही बेतार तरन्नुम
कहाँ ज्ञान का जन्नत और कहाँ भूख, गरीबी का जहन्नुम

बुधवार, 21 अक्टूबर 2015

पता नहीं देश चल रहा कि जल रहा है


सब कुछ सुरक्षित है अपनी जगह पूजा पाठ और ध्यान
व्यवस्था अवस्था संविधान शासन प्रशासन योगासन
जिस से भी चलता है देश
हाँ सभी मर्माहत हैं दुखी, उदास और परेशान
हर किसी के पास इस के लिए अपने-अपने कारण हैं

अपने-अपने कारणों और तरीकों से
दुखी उदास और परेशान होने का
मौलिक अधिकार हर किसी के पास है
हर कोई अपने-अपने कारणों के साथ
अपने मौलिक अधिकार के पक्ष में है तैयार
आइये मार्यादा में रहकर चैनलों पर बहस करते हैं
और यह पहली बार नहीं हुआ है
याद है न बेलछी, बाथे गोहाना, जाने कितने और नाम हैं

और फिर उसके बाद, और फिर उसके बाद
अबकी बार सुनपेड़ गांव, होता ही रहता है सरकार
मुआवजा आश्वासन न्याय के तो हैं सब-के-सब हकदार

पता नहीं देश चल रहा है कि देश जल रहा है









शनिवार, 19 सितंबर 2015

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

सांप्रदायिक राजीनिति के मिजाज में आरक्षण का सवाल और बबाल

गुजरात में हार्दिक पटेल के नेतृत्व में पटेल समुदाय को आरक्षण का लाभ दिये जाने की माँग की हिंसक परिणति सामने है। इसके पहले भी गुर्जर और जाट इस तरह का आंदोलन करते रहे हैं। हिंसा और जबर्दस्ती भी कम-ओ-बेश इन सब का अंतर्निहित सच है। इन सब से मन बहुत ही व्यथित हो जाता है। यह लेख बहुत ही व्यथित मन से लिखा गया है। उम्मीद के आकाश में चिंता की लकीरों को नजर अंदाज किये बिना भी भरोसा यह है कि सोच, समझ, तर्क और विचार और असहमति को जीवन से पूरी तरह खेदेड़ नहीं दिया गया है।
बिहार में चुनाव का परिदृश्य है। इस परिदृश्य का क्या महान दृश्य है कि ‘हिंदु एकता के लिए समर्पित एकात्म-मानववाद के पैरोकार’ जाति के शौर्य से खुद को अलंकृत कर रहे हैं। मुहावरे के तौर पर कहा और माना जाता है कि ‘कमंडल की सांप्रदायिक राजनीति’ का मुकाबला करने के लिए ‘मंडल की जाति आधारित राजनीति’ को अपनाया गया। ‘कमंडल की सांप्रदायिक राजनीति’ का मुकाबला करने की बात सचमुच रही हो तो इसमें एक बुनियादी भूल थी। भूल यह कि  जाति आधारित राजनीति, सांप्रदायिक राजनीति के विरुद्ध दिखती हुई भी कभी उसका वास्तविक विकल्प नहीं रच सकती। नतीजा यह हुआ कि आज ‘कमंडल की राजनीति’ मंडल की राजनीति में समाहित होकर राजनीतिक धुंध, धुआँ, क्रोध, फरेब, तर्कहीनता, विचारहीनता उगल रही है और आत्म-विभाजन, विध्वंस, अंतर्ध्वंस की यह नकारात्मक स्थिति ऊपरी तौर पर हर तरह की विषमता की जननी पूँजूवादी सोच को अपने लिए मुफीद लग रही है। यहाँ से देखें तो जनतंत्र के बहुमतवाद को बहुसंख्यकवाद और फिर बहुसंख्यकवाद में बदलने और जनतंत्र के भीड़तंत्र में बदलने की प्रक्रिया भी साफ दिखेगी।
बावजूद इन सब के, यह स्वाभाविक है कि नकारात्मक भेदभाव से भरी व्यवस्था के बुरे असर को दूर करने के लिए जिन आधारों पर नकारात्मक भेदभाव होता है उन आधारों पर ही सकारात्मक भेदभाव का उपाय कर संतुलन हासिल करने का इंतजाम किया जाना चाहिए। भारतीय समाज व्यवस्था जाति के आधार पर बँटी है, इस बात से मुहँ चुराने का कोई मतलब नहीं। यह बात भी माननी होगी कि समतामूलक समाज ही संतुलित समाज होता है, जिस समाज में समता नहीं वह समाज कभी संतुलित नहीं रह सकता। समता के लिए अपने को सर्वाधिक सिद्धांतबद्ध राजनीतिक विचारधारा के पैरोकारों ने, अपने वर्ग-बोध पर जरूरत से ज्यादा जड़मतित्व के कारण, भारतीय समाज के जाति आधार को तो कभी ढंग से समझने की कोशिश ही नहीं की, इसके बुरे प्रभाव से मुक्ति के उपाय सोचने की तो बात ही क्या!
आजादी के आंदोलन के दौरान एक आधुनिक राजनीतिक राष्ट्र के रूप में भारत पुनर्गठित हो रहा था। आधुनिक राजनीतिक राष्ट्र के रूप में भारत पुनर्गठित होने की राजनीतिक प्रक्रिया में ही बाबा साहेब ने सामाजिक संतुलन के सवाल को पूरी बौद्धिक ताकत के साथ उठाया। आधुनिक राजनीतिक राष्ट्र के रूप में भारत पुनर्गठन के इतिहास में दिलचस्पी हो तो इसे सही परिप्रेक्ष्य में सही ढंग से समझा जा सकता है। बाबा साहेब के सवालों की वैधता और आधुनिक राजनीतिक राष्ट्र के रूप में राजनीतिक भारत की अंदरुनी शर्त्तों के पूरा करने के लिए नकारात्मक भेदभाव को दूर करने के लिए सकारात्मक भेदभाव का प्रावधान किया गया। माना गया कि नकारात्मक भेदभाव का बड़ा आधार जाति है इसलिए स्वाभाविक है कि सकारात्मक भेदभाव के प्रावधान का आधार जाति को बनाया गया। सकारात्मक भेदभाव के यही प्रावधान आरक्षण के रूप में परिचित और प्रचलित है। मूल रूप से यह माना जाना चाहिए कि आरक्षण के प्रावधान नकारात्मक भेद भाव को दूर करने के लिए थे पिछड़ापन दूर करने के लिए नहीं, क्योंकि सकारात्मक भेद भाव से पिछड़ापन के दूर होने की गुंजाइश बहुत कम, न के बराबर होती है। किसी पिछड़े राष्ट्र में पिछड़ापन उस राष्ट्र में रहनेवाले सभी लोगों का छोटा-बड़ा सच होता है। आगे चलकर राजनीतिक कारणों से, कह लें जनतंत्र में वोट संग्रह के अपने महत्त्व के राजनीतिक कारणों से, आरक्षण के प्रावधान को पिछड़ापन दूर करने का माध्यम बताया और माना जाने लगा। आरक्षण को पिछड़ापन दूर करने का माध्यम मान लेने से पिछड़ापन का आधार जाति को मानना इसी राजनीतिक बोध के अंतर्गत जरूरी हो गया। कह लें, जाति की वोटर संख्या के बड़े आकार के आकर्षण के कारण पिछड़ापन का आधार जाति को मानना जरूरी हो गया। यही वह बिंदु है जहाँ से आरक्षण का प्रावधान नकारात्मक भेदभाव को दूर कर सामाजिक संतुलन हासिल करने के उपाय से बदलकर राजनीतिक शक्तिसंयोजन के विशेषाधिकार का आधार बन गया। इसके दो भयानक परिणाम हैं; पहला यह कि जाति आधारित नकारात्मक भेदभाव को दूर करने की जरूरत से एक राष्ट्र के रूप में हमारा ध्यान भटक गया और दूसरा यह कि नकारात्मक भेदभाव को दूर करने का सकारात्मक उपाय अपने प्रभाव में नकारात्मक हो गया। यानी जिस बुराई को दूर करने के लिए आरक्षण का उपाय किया गया था, आरक्षण उसी को हवा देने लगा।
अब हार्दिक पटेल की लाइन दोनों करफ से आग लगाने पर आमादा है। क्या अद्भुत तर्क है कि या तो हमारे समुदाय को भी आरक्षण दो या फिर किसी समुदाय को मत दो! गुजरात में हार्दिक पटेल के आह्वान पर जुटी भीड़ के मिजाज और लिबास को मीडिया में देखने से लगता ही नहीं है कि यह वंचित या पिछड़े समुदाय का जमावड़ा है। यह विशुद्ध रूप से जाति के लिए राजनीतिक विशेषाधिकार को हासिल करने के लिए शक्तिसंयोजन का व्यायाम है। हालाँकि, राजनीतिक नफा-नुकसान के बाहर इस माँग को मानने का कोई औचित्य नहीं है, लेकिन राजनीतिक कारणों से इस व्यायाम का समर्थन करनेवाले प्रभावशाली लोगों की कोई  कमी नहीं है। इस व्यायाम की हिंसक गतिविधियों के कोलाहल में राजनीतिक प्रभुसत्ता के दुरुपयोग, अहंकार और आक्रामकता से पैदा हुए सारे सवाल तात्कालिक रूप से नैपथ्य में चले जायेंगे चाहे वे व्यापमं की विराटता से जुड़े हों, ललित गेट से जुड़े हों, कोलगेट से जुड़े हों, अंगुली पर गिने जाने लायक घरानों के पास अकल्पनीय बकाया की ना-वसूली से जुड़े हों।
हार्दिक पटेल की माँग का औचित्य नहीं है! तो क्या आरक्षण को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाना चाहिए? मेरा ख्याल है कि नहीं, आरक्षण को पूरी तरह समाप्त करने का वक्त अभी नहीं आया है। हाँ यह जरूर किया जाना चाहिए कि आरक्षण के प्रावधान को नकारात्मक भेद भाव को दूर करने के लिए सकारात्मक भेद भाव के उपाय तक सीमित किया जाना चाहिए, इसे जाति की वोटर संख्या के बड़े आकार के राजनीतिक आकर्षण में पिछड़ापन दूर करने का माध्यम नहीं बनाया जाना चाहिए। धर्म आधारित सांप्रदायिक राजीनिति के मिजाज में जाति आधारित आरक्षण का सवाल और बबाल अभी और क्या रुख अख्तियार ग्रहण करता है यह तो वक्त ही बतायेगा। फिल वक्त तो यह कि मन बहुत व्यथित है और गलत समझ लिये जाने के जोखिम पर भी यह कहना बहुत जरूरी है कि अब और नहीं!