अकेले बिहार भारत की आधी आबादी के लिए अन्न पैदा कर सकता है, ऐसा हरित क्रांति के पुरोधा ने केरल के त्रिशूर विश्वविद्यालय के एक दीक्षांत समारोह में आज से कई साल पहले कहा था। शर्त्त यह कि पानी की अनियंत्रित अतिरिक्त उपलब्धता को प्रबंधित किया जा सके। यह न किया जा सका। नतीजा बहुत बड़ी आबादी अफरा-तफरी में है। अपने टूटली मड़ैया या बड़के पक्का मकान से बेदखल! राहत के इंतजार में। इंतजार किसी को कुछ दे जाता है, तो किसी को बेबसी के भँवर से निकाल नहीं पाता है। जान-माल की क्षति का कोई आकलन हो नहीं सकता। सारे आर्थिक क्रिया-कलाप, पढ़ाई-लिखाई, शिक्षोन्मुखी एवं रोजगारोन्मुखी परीक्षाएँ, जीवन में उल्लास की तलाश की हर प्रक्रिया स्थगित! बस एक लूट-सी मची रहती है, हर तरह की। और ख्वाहिश! बस एक ही ख्वाहिश, राहत! सुनने में बुरा लगेगा, कहने में भी बुरा लग रहा है लेकिन, यह सच हैकि राहत के भरोसे रहते-रहते हुए धीरे-धीरे राहत आदत में बदलने लगती है और राह पाने की कोई सुध नहीं रह जाती है। राहत कोई राह नहीं है। लानत ! उफ लानत।
जब बाढ़ का पानी उतरता है तो अपने पीछे लंबा हाहाकार छोड़ जाता है, यह अक्सर चित्र और क्लिपिंग्स में नहीं समाता, न दृश्य हाता है और न श्रव्य बस भोग्य होता है, जो भोगता है वही जानता है!
जब उतर जाये बाढ़ का पानी और बचा रह जाये आँख या आकाओं के किरदार में थोड़ा पानी तो कहना जरूरी होगा कि राहत के लिए तो शुक्रिया, लेकिन यह कोई राह नहीं है! हमें राहत की नहीं, अब राह की जरूरत है! कह पायेंगे हम! कहाँ कह पाते हैं, क्या पता कह भी दें। ध्यान रहे कहना है, सिर्फ बोलना पर्याप्त नहीं होगा! क्या!