शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

लेखक, अगर आदमी है. तो वह किसी का 'आदमी' नहीं होता

प्रभाकर श्रोत्रिय को श्रद्धांजलि
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लेखक, अगर आदमी है, तो वह किसी का ‘आदमी’ नहीं होता
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प्रभाकर श्रोत्रिय भारतीय भाषा परिषद के निदेशक बनकर कोलकाता आये थे। उनके यहाँ आने के पहले एक खबर यह आई या उड़ी कि वह आरएसएस का आदमी है। किसी लेखक के बारे में यह उड़ा देना कि वह फलाना का आदमी है कितना त्रासद होता है, इसका कुछ अनुभव तो मुझे रहा है। यकीन करने या नहीं करने का सवाल नहीं था, लेकिन सावधान रहने की ‘जरूरत’ थी। वागर्थ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ और धीरे-धीरे उनके बारे में अपनी धारणा बनने लगी। सावधानी शिथिल होती गई। यह बात पुष्ट होती गई कि लेखक असल में उस अर्थ में किसी का ‘आदमी’ नहीं होता, नहीं हो सकता है। मैंने उन्हें एक बेहतर संपादक और गंभीर लेखक के रूप में ही जाना। अपनी कई बुनियादी दृष्टि भिन्नताओं के बावजूद, उनके प्रति मन में सम्मान का जो भाव जगने और बनने लगा, आज भी सुरक्षित है। आज उनके नहीं रहने से मन खिन्न और दुःखी है कि हिंदी ने एक कुशल संपादक लेखक को खो दिया।
उन से जुड़ी कई बातें ध्यान में आ रही हैं। प्रीतिकर भी, अप्रीतिकर भी। लेकिन दो प्रसंग का उल्लेख करने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ। वागर्थ में तो मैं लगभग लगातार लिख ही रहा था। स्वभावतः, भारतीय भाषा परिषद आना जाना लगा रहता था। ऐसे ही किसी काम से एक बार उन से मिलने भारतीय भाषा परिषद गया। उनके सहायक ने बताया आज मुलाकात नहीं हो सकती है। बहुत व्यस्त हैं। मेनेजमेंट की मीटिंग चल रही है। मिलना जरूरी था। संयोग से उसी समय वे बाहर निकले, तो मुझे देखा और अपने केबिन में बुला लिया। मैं ने कहा कि आप मेनेजमेंट की मीटिंग में व्यस्त हैं, मैं फिर कभी आ जाऊंगा! उन्होंने कहा कि मैं कोई मेनेजमेंट नहीं हूँ। उन्हें मेरी राय की जरूरत होगी तो वे दस मिनट इंतजार कर सकते हैं। आप चाय पी कर जाइये। चाय आने में जाहिर है कम-से-कम दस मिनट तो लगा ही होगा। इस बीच दो बार बुलावा आया। उन्होंने कहला भेजा कि एक लेखक आये हैं, थोड़ा इंतजार करें। वे आराम से चाय पीते रहे। वे दबाव में नहीं थे, दबाव में तो मैं था।
तब मोबाइल का चलन आम नहीं हुआ था, मेरे पास तो नहीं था। उन्होंने मेरे दफ्तर के फोन पर दृढ़ता से कहा कि तुरत मिलना चाहता हूँ। मैं जब उनके पास पहुँचा तो वे ऊपर से बहुत दुःखी और भीतर से बहुत क्रुद्ध थे। कुल मिलाकर कातर! कवि मान बहादुर सिंह  की हत्या से हम सभी स्तब्ध थे। उन्होंने कहा कि मान बहादुर सिंह  की कविता पर एक पृष्ठ की टिप्पणी लिखकर अभी दीजिये। वागर्थ के लिए। मेरे पास मान बहादुर सिंह की कविताएँ तत्काल उपलब्ध नहीं थी। पुस्तकालय में उनकी कविताओं के होने की संभावनाओं से वे पहले निराश हो चुके थे। कुछ कविताएँ वागर्थ की फाइल में थी। एक दो पत्रिकाओं में हम साथ-साथ छपे थे। लेकिन उन पत्रिकाओं के उन अंकों की प्रति के घर में होने के प्रति मैं आश्वस्त नहीं था। फिर भी मैं ने कहा कि अभी मैं इन कविताओं को ले जा रहा हूँ। घर में देख लेता हूँ। कल सुबह टिप्पणी दे जाने की कोशिश करूँगा। वे पहले तो चुप रहे, फिर बोले। ठीक है, ले जाइये। कल सुबह तक टिप्पणी नहीं मिली तो वागर्थ में एक पृष्ठ खाली जायेगा, इस उल्लेख के साथ की टिप्पणी नहीं उपलब्ध हो सकी। मैं ने जैसे-तैसे टिप्पणी लिखी, उन्हें समय पर दी और वह वागर्थ में छपी। मान बहादुर सिंह  की हत्या के संदर्भ में उनकी लेखकीय भंगिमा की करुणा और संपादकीय मुद्रा की दृढ़ता को मैं कभी भुला नहीं पाया। बाद के दिनों की बात! मान बहादुर सिंह के हत्यारे राज्य सरकार की कृपा से खुले आम दहाड़ रहे थे। हिंदी के एक बहु ख्यात कवि, बहुत सारे लेखकों के अनुरोध को ठुकराकर, राज्य सरकार से पुरस्कार लाभ कर रहे थे। नाम! जाने दीजिये यह अवसर नहीं है। कहना सिर्फ इतना है कि लेखक, अगर आदमी है, तो वह किसी का ‘आदमी’ नहीं होता।

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