असली साहित्य भी वही है जिसे कैंपस में स्वीकृति है। साहित्यवाले/वाली तो फिर भी कैंपस के बाहर किसी तरह, उखड़ी-उखड़ी ही सही, साँस ले लेते /लेती हैं। अपनी बैठक, उठक-बैठक भी, कर लेते/लेती हैं। जैसे-तैसे जी लेते/लेती हैं। समाज में आते-जाते रहते /रहती हैं। लेकिन, समाजशास्त्रवाले /वाली तो, कैंपस के अवरोधकों को लाँघकर, समाज में जा ही नहीं पाते /पाती हैं। इतिहासवाले/वाली, कोशिश करते/करती हैं तो पुराण और मिथजीवी उन्हें ऐसा सिकोड़ देते हैं कि वे खुद को भी ठीक-ठीक पहचानने की स्थिति में नहीं रह जाते/जाती हैं। दर्शनशास्त्रवाले/वाली क्या करें! विचार की थाली सजाकर कैंपस की चौहद्दी से बाहर निकलते /निकलती हैं तो उनकी ऐसी उतारी जाती है कि बस दर्शनीय होकर रह जाते/जाती हैं! बहुत घुटन है परफूल। घुटन को घुटनों के बल होकर महसूस करो, शायद अक्ल ठिकाने आये! आखिर बाल-बच्चोंवाले गृहस्थ हो! गृहस्थी का ख्याल करो। और क्या कहें सिरीमान परफूल मोशाय! समझ रहे हैँ न!
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