मंगलवार, 5 अगस्त 2014

पढ़िये गीता उसमें फिर लगा....

सुप्रीम कोर्ट के एक जज जस्टिस ए आर दवे ने एक बयान में कहा कि अगर वो भारत के तानाशाह होते तो पहली कक्षा से महाभारत और भगवद् गीता की पढ़ाई शुरू करवाते

हुजूर! हिंदी के एक कवि हैं ▬▬ रघुवीर सहाय। उनकी एक कविता की बहुत याद आ रही है। जब से आपके उत्तम विचार कान में पड़े हैं, प्राण रघुवीर सहाय की कविता से लिपटा हुआ है। तो पहले वह कविता देख लें ▬▬

पढ़िए गीता
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पढ़िए गीता
बनिए सीता
फिर इन सब में लगा पलीता
किसी मूर्ख की हो परिणीता
निज घर-बार बसाइये।
होंय कँटीली
आँखें गीली
लकड़ी सीली, तबियत ढीली
घर की सबसे बड़ी पतीली
भरकर भात पसाइये।

अब आप ही कहिये हुजूर कि एक ओर आपकी सदिच्छा और दूसरी ओर इस कविता की आशंकाएँ, मन छटपटायेगा नहीं तो क्या होगा। वेदना तो होगी न! हुजूर ने पहली क्लास के मुहावरे में कहा है। मैं तो कहता हूँ असली वीर तो गर्भ में ही युद्ध की सब से कठिन विद्या सीख कर पारंगत हो जाता है। अब गीता ही नहीं पढ़ेंगे तो भला यह ज्ञान होगा ही कैसे कि जीवन को एक युद्ध होना चाहिए कि जीवन को योद्धा की तरह जीना चाहिए। हर समय युयुत्स बना रहना ही जीवन का सार है। जो युयुत्स नहीं है, वह कायर है। बेहिचक हुजूर जो कायर है वह जीता नहीं है, जीवन को रेंगता है। जिसमें युयुत्सा नहीं, उसमें जिज्ञासा नहीं। कोई पूछे कि जब युद्ध ही नहीं करना है तो जानकर क्या होगा! बाँझ जिज्ञासा हरि को नहीं सुहाता है और हुजूर को भी नहीं।

गीता नहीं पढ़ेंगे तो युद्ध-विरत होते लोगों को युद्ध-प्रेरित कैसे करेंगे! जब युद्ध ही नहीं करेंगे तो छप्पन इंच का सीना लेकर क्या होगा? गीता नहीं पढ़ेंगे तो कैसे समझेंगे गुण कर्म विभाग का रहस्य? गीता नहीं पढ़ेंगे तो किसी की साधारण आँख यानी चर्म-चक्षु को दिव्य-चक्षु से बदलने-बदलवाने की शल्य-कला में कैसे निष्णात होंगे? कैसे समझेंगे कि जो हुआ वह भी अच्छा, जो नहीं हुआ वह भी अच्छा, जो हो रहा है वह भी अच्छा, जो नहीं हो रहा वह भी अच्छा, जो होगा वह भी अच्छा, जो नहीं होगा वह भी अच्छा। हुजूर अब इनको कौन समझाये कि जब गीता ही नहीं पढ़ेंगे तब तक कैसे समझेंगे कि अच्छे दिन में सबकुछ अच्छा ही होता है! गीता नहीं पढ़ेंगे तो कैसे बोध होगा कि शराणागति ही असली रहस्य और आधार है खाँटी आजादी का। आपने पढ़ा था मालिक, इसीलिए तो परिणाम की चिंता किये बिना आपने कह डाला जो कहना था! लेकिन हुजूर ने यह क्यों कहा कि अगर आप वह होते। अगर, मगर की बात नहीं हुजूर हमें तो पूरा यकीन है कि आप वही हैं। आपकी इस अगर विनम्रता से मेरा दिल बहुत छोटा हो गया है। बस भरोसा यह है कि गरुड़ लोग सिमटी बाँहों को खोल रहे हैं, वे इस अगर-मगर की पीड़ा से मुक्त होने को संभव कर देंगे। हाँ, अच्छे दिन में अच्छे विचार के लिए यह विपन्न देवानम प्रिय आर्यावर्त्त कृतज्ञ है हुजूर।
  
और हाँ, एक बात और। अब घर ही कहाँ है, जो है भी वह क्या इतना बड़ा है कि घर की सबसे बड़ी पतीली भरकर भात पसाने की नौबत आये! अच्छे दिनों में, ऐसी कविताओं को पढ़ने से बचना-बचाना जरूरी है, कुछ इस पर भी सोचिये हुजूर।  


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