आभासी को वास्तविक समझना और फिर प्रयोजन के समय परेशान होने को 'चित्र तुरंग न्याय' से समझा जा सकता है। घोड़ा (तुरंग) का दिखाकर किसी का पूछना कि यह क्या है और हमारा जवाब देना कि यह घोड़ा है, तब तक ठीक है जबतक पूछनेवाला उसकी सवारी का हुक्म न दे। हुक्म सुनने के बाद यह परेशानी होती है कि अब इसकी सवारी कैसे की जाये! तब घोड़ा और उसके चित्र का अंतर समझ में आता है। सेव का चित्र दिखाकर बच्चों को समझाया जाता है कि यह सेव है। बच्चा इसी तरह से सीखता चलता है! बच्चा बड़ा होता है, हमारी तरह। हम सभी अंततः सेव के चित्र को सेव ही कहते हैं! जब तक खाने का ख्याल न आये तब तक ठीक है, खाने का ख्याल आते ही सब ज्ञान गोबर! हम विचार और व्यवहार की दुनिया में इस 'चित्र तुरंग न्याय' की चपेट में पड़ते ही रहते हैं! अब आदमी कितना सावधान रहे कि सेव के चित्र को देखकर अपने अंतर्मन में समझे और कहे कि यह सेव नहीं सेव का चित्र है! आभासी और वास्तविक को सिर्फ प्रयोजन से जोड़कर ही समझा जा सकता है! फिर हमारे समय और साथ के बहुत सारे महापुरुष ही नहीं, बहुत सारे मित्र, नातेदार, रिश्तेदार यहाँ तक कि कविता आदि भी महापुरुष और मित्र, नातेदार, रिश्तेदार और कविता आदि के चित्र ही साबित होंगे। वे ही नहीं, बल्कि हम खुद को भी चित्र साबित होने से बचा नहीं पायेंगे; कम-से-कम मैं तो खुद को चित्र साबित होने से नहीं बचा पाऊँगा। क्या कहते हैं! क्या हम सब 'चित्र तुरंग न्याय' की चपेट में नहीं हैं! क्या प्रयोजन पड़ते ही हमारा सब ज्ञान गोबर नहीं हो जाता है!
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