राज्य-संचालन की व्यवस्था के रूप में जनतंत्र की स्थापना और जीवन पद्धति के रूप में आधुनिकता के प्रसार के साथ ही अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक पर विचार प्रारंभ होता है। संचार की बढ़ती हुई सुविधाओं, रोजी-रोटी के अवसरों की तलाश में आबादी की गत्यात्मकता में भारी वृद्धि हुई। जनतंत्र में चुनाव का अपना महत्त्व होता है। चुनाव प्रक्रिया में 'एक व्यक्ति, एक मत' का सिद्धांत स्वीकृत होता है। जब भारत की आजादी के आंदोलन के दौरान यह बात पुख्ता तौर पर सामने आई कि आजादी के बाद यहाँ एक व्यक्ति, एक मत' के सिद्धांत के आधार पर राज्य-संचालन की व्यवस्था के रूप में जनतंत्र की स्थापना होगी, तो तमाम हलकों में एक नई किस्म की बेचैनी सामने आई। इस बेचैनी की समझ को मुहम्मद इकबाल के मार्फत समझा जा सकता हैः
इस राज़ को इक मर्दे फ़रंगी ने किया फ़ाश।
हरचंद कि दाना इसे खोला नहीं करते।।
जम्हूरियत इक तर्जे हुकूमत है कि जिसमें।
बंदों को गिना करते हैं तोला नहीं करते।।
इस समझ ने व्यवहारतः यह बताया कि राज्य-संचालन की व्यवस्था के रूप में जनतंत्र या जम्हूरियत की स्थापना के बाद इस्लाम को माननेवाले अल्पसंख्यक और इस तरह अल्पमत में हो जाने के कारण हिंदुओं के वर्चस्व का शिकार होते रहेंगे। अस्मिताओं की संरचना की ना-काफी समझ के कारण मान लिया गया कि उसका एक ही आधार होता है और वह एक आधार धर्म ही होता है। अस्मिताओं के आधारों की इस गलत समझ के कारण पाकिस्तान की माँग में तेजी आई और पाकिस्तान के भारत से अलग हो जाने के औचित्य को संवेदनशील बौद्धिक आधार मिल गया। इस तरह अस्मिताओं के आधारों की ना-काफी समझ से उत्पन्न ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण एक प्रकार की धारणा और मान्यता जनमानस में गहरे पैठ गई कि अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक होने का एक मात्र आधार धार्मिक होता है। इस धारणा और मान्यता की स्वाभाविक परिणति यह कि मुस्लमान अल्पसंख्यक (इसलिए अल्पमत) और हिंदु बहुसंख्यक (इसलिए बहुमत) हैं। पाकिस्तान के अलग हो जाने के कारण अल्पसंख्यक के अर्थात, मुस्लमानों के गैर होने के भावबोध के विकसित होने का भी अवसर बन गया। हालाँकि, 14 मई 1933 की तारीख में ही 'पाकिस्तान की नई उपज' शीर्षक से प्रेमचंद (विविध प्रसंग में संकलित) ने लिखा था 'डॉ. सर मुहम्मद इकबाल पच्छिम में मुसलिम राज्य का स्वप्न देख रहे हैं। अब उनके भी उस्ताद निकल आये हैं वह पाकिस्तान के नाम से एक मुसलिम साम्राज्य का स्वप्न देख रहे हैं। इस पाकिस्तान में कश्मीर, पंजाब, बलोचिस्तान, सीमाप्रांत और अफगानिस्तान आदि सम्मिलित होंगे और वह भारतवर्ष से बिल्कुल पृथक होगा। आविष्कारक महोदय का कथन है कि इन प्रांतों में तीन करोड़ मुसलमान आबाद हैं, जो हालैंड, स्पेन, बेलजियम आदि देशों से अधिक है। उधर ईरान, तुर्किस्तान, शाम, इराक, मिस्र, तुर्की मुसलिम रियासतें पहले से हैं। यह पाकिस्तान सूबा उनके साथ मिल गया, तो एक महान मुसलिम साम्राज्य का उदय हो जायेगा और इसलाम के इतिहास में जो बात पहले कभी नहीं हुई थी, वह हो जायेगी! बात तो बहुत अच्छी है; पर कुछ कारण ही तो है कि अभी तक तुर्की और ईरान में मेल नहीं हो सका। मेल का जिक्र ही क्या अभी थोड़े दिन पहले वैमनस्य हो गया था। फिर अफगानिस्तान क्यों नहीं तुर्की से जा मिला! और तुर्किस्तान को अफगानिस्तान से मिलने में कौन बाधा हो रहा है! अगर धर्म ही राष्ट्रों को मिला दिया करता तो जर्मनी और फ्रांस और इटली आदि राष्ट्र कब के मिल चुके होते।' प्रेमचंद की बात पर तब पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया था। लेकिन, अपने संदर्भ में हम देखें तो बांग्लादेश के पाकिस्तान से अलग हो जाने के बाद यह बात बहुत ही क्रूर ढंग से सामने आई और साबित हो गया कि अस्मिताओं का आधार सिर्फ धर्म नहीं होता है, बल्कि अस्मिताएँ बहु-आधारीय हुआ करती हैं। इसके बावजूद, जनमानस में गहरे पैठी इस धारणा और मान्यता में कोई कमी नहीं आई कि अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक होने का एक मात्र आधार धार्मिक होता है और न चुनावी राजनीति के शॉर्टकट ने हिंदु-मुस्लमान में एक दूसरे के प्रति गैरपने को कम करने में दिलचस्पी दिखलाई, बल्कि इसके विपरीत इसे पहले से अधिक बढ़ाकर धार्मिक आधार पर नागरिकों या मतदाताओं के ध्रुवीकरण के रास्ते को अख्तियार कर लिया गया।
धार्मिक आधार पर नागरिकों या मतदाताओं के ध्रुवीकरण से 'एक व्यक्ति, एक मत' के सिद्धांत की खूबियाँ खामियों में बदल जाती हैं। क्योंकि इसमें बहुमत के फैसले को मानने और न मानने पर नतीजा भोगने की बाध्यता होती है। सुकरात, बुद्ध, ईसा, गाँधी, आंबेडकर, सुभाष आदि के संदर्भ में बहुमत के फैसले को मानने और न मानने पर नतीजा भोगने की बात को अलग से विश्लेषित किया जा सकता है।
राज्य-संचालन की व्यवस्था के रूप में जनतंत्र का बहुमत अलगाववाद की तरफ ठेलनेवाले बहुसंख्यकवाद में न बदल जाये इसके लिए जरूरी है कि अस्मिताओं की संरचना को ठीक से समझा जाये। अस्मिताओं की संरचना बहु आधारीय होती है। जाहिर है, अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक होना भी बहु-आधारीय होता है। उदाहरण के लिए भारत के किसी एक राज्य में एक नागरिक धर्म के आधार पर, बहुसंख्यक तो भाषा के आधार पर, जन्मक्षेत्र आदि के आधार पर अल्पसंख्यक हो सकता है। बहुसंख्यकों के किसी भी तरह के दबाव या वर्चस्व से अल्पसंख्यकों के बचाव के लिए अल्पसंख्यक को राज्य के द्वारा चिह्नित किया जाना जरूरी है। इधर, अल्पसंख्यक की पहचान के मामले में एक नई किस्म की हलचल सत्ता के गलियारे में है। इस मामले में कुछ ऐसे तर्क दिये जा रहे हैं. जो चिंता का कारण है। भारतीय संविधान की व्यवस्थाओं में भी इस पहचान को स्पष्ट और समुचित कारणों से काफी खुला रखा गया है, मानवाधिकार से जोड़कर ही इसे संयुक्त राष्ट्रसंघ भी देखता रहा है। यह सच है कि दुनिया भर के शासकों की दिलचस्पी जनता को विभाजित करनेवाली प्रवृत्तियों में होती है। उसकी दिलचस्पी जनता की एकता के सूत्रों में न होकर वैमनस्य के उलझावों को सुलझाने से अधिक उलझाने में होती है। एक प्रसंग भीष्म साहनी के प्रसिद्ध उपन्यास ‘तमस’ से:
‘लीजा ने आँखें ऊपर उठायीं ओर रिचर्ड के चेहरे की ओर देखने लगी। ‘‘क्या गड़बड़ होगी? फिर जंग होगी?’’ ‘‘नहीं, मगर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच तनातनी बढ़ रही है, शायद फसाद होंगे।’’ ‘‘ये लोग आपस में लड़ेंगे? लंदन में तो तुम कहते थे ये लोग तुम्हारे खिलाफ लड़ रहे हैं।’’ ‘‘हमारे ख़िलाफ भी लड़ रहे हैं और आपस में भी लड़ रहे हैं।’’ ‘‘कैसी बातें कर रहे हो? क्या तुम फिर मजाक करने लगे?’’ ‘‘धर्म के नाम पर आपस में लड़ते हैं, देश के नाम पर हमारे साथ लड़ते हैं’’ रिचर्ड ने मुस्कुराकर कहा। ‘‘बहुत चालाक नहीं बनो, रिचर्ड। मैं सब जानती हूँ। देश के नाम पर ये लोग तुम्हारे साथ लड़ते हैं और धर्म के नाम पर तुम इन्हें आपस में लड़ाते हो। क्यों, ठीक है ना? ‘‘हम नहीं लड़ाते, लीजा, ये लोग खुद लड़ते हैं।’’ ‘‘तुम इन्हें लड़ने से रोक भी तो सकते हो। आखिर हैं तो ये एक ही जाति के लोग।’’ रिचर्ड को अपनी पत्नी का भोलापन प्यारा लगा। उसने झुककर लीजा का गाल चूम लिया। फिर बोला :
‘‘डार्लिंग, हुकूमत करनेवाले यह नहीं देखते कि प्रजा में कौन-सी समानता पायी जाती है, उनकी दिलचस्पी तो यह देखने में होती है कि वे किन-किन बातों में एक-दूसरे से अलग हैं।’’ तभी खानसामा ट्रे उठाये चला आया। उसे देखकर लीजा बोली : ‘‘यह हिंदू है या मुसलमान?’’
‘‘तुम बताओ’’ रिचर्ड ने कहा। ‘‘लीजा देर तक खानसामे को देखती रही जो ट्रे का सामान रख चुकने के बाद बुत-का-बुत बना खड़ा था।’
ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि धार्मिक आधार पर जिस प्रकार से पाकिस्तान अलग हो गया वह अब पुराना पड़ चुका है। जिस प्रकार भाषा के आधार पर बांग्लादेश बना वह नया मॉडल है। हालाँकि, भाषायी अस्मिता के आधार पर बांग्लादेश की तरह अलग राष्ट्र की माँग के लिए अभी कोई अवकाश नहीं है, फिर भी एक भिन्न प्रकार का खतरा तो है। इस खतरे को बल मिलता है भाषा के आधार पर भारतीय राज्यों के गठन-पुनर्गठन के सिद्धांतों को स्वीकार कर लिये जाने से। एक भिन्न प्रकार का खतरा यह है कि राजनीतिक ध्रुवीकरण के लिए धार्मिक अस्मिताओं और आर्थिक ध्रुवीकरण के लिए भाषायी-क्षेत्रीय अस्मिताओं को आजमाने की दिशा में देश के 'अधिकृत रणीतिकार' सक्रिय हो रहे हैं। इस 'रणनीति' को शिवसेना/मनसे मॉडल के रूप में समझा जा सकता है। आनेवाले दिनों में भाषा और बोलियों के जायज सवालों का दुरुपयोग बहुत ही निकृष्ट, तीखे और क्रूर ढंग से होने का खतरा बढ़ रहा है। ध्यान में होना ही चाहिए कि जायज की पूँछ पकड़कर ही ना-जायज हमारे मन में जगह बनाता है। जरूरी है कि भाषा और बोलियों के जायज सवालों को हम ठीक ढंग से समझें और इस समझ को अपने मानस से जोड़ने का प्रयास करें तभी किसी हद तक इन जायज सवालों के निकृष्ट, तीखे और क्रूर दुरुपयोग को रोका जा सकेगा। निवेदन है कि इसे अग्रकथन या अतिकथन न समझा जाये।
using religious and language identities to fulfill political aspirations have become the order of the day. It has left a deep scar on our socio-political canvas, vitiated the very foundations of India as a confluence of composite cultures and identities. the inter mixing and inter play of identities have produced serious consequences in the past, and the present too is bleak. To fulfill its aspirations the ruling class has used these identities from time to time, as rightly portrayed in TAMAS by Bhism Sahani. The recent flare up of communal passions is a serious indicator of the days to come.
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