नागार्जुन ने कई भारतीय भाषाओं में कविता को संभव किया था। हिंदी के अलावे मैथिली, बाँग्ला, संस्कृत में उनकी कई कविताएँ उपलब्ध हैं। कुछ अन्य भाषाओं में कविता लिखे जाने की सूचना भर उपलब्ध है। नागार्जुन हिंदी के बड़े कवि हैं। किसी भी बड़े रचनाकार की रचनाओं को कई दृष्टिकोण और दृष्टि-बिंदुओं से समझे जाने की जरूरत हमेशा ही बनी रहती है। भारत अपने-आप में बड़ा है। इस बड़े भारत के बड़े कवि को समझने के लिए भी बड़े फलक की जरूरत है। मैथिली नागार्जुन की मातृभाषा थी। मैथिली न सिर्फ उनकी मातृभाषा थी बल्कि मैथिली से उनको बड़ा गहरा लगाव भी था। खास बात यह कि मैथिली से उनके गहरे लगाव और अनुराग ने अन्य भाषाओं के प्रति उनके लगाव और अनुराग को कम नहीं किया था, बल्कि बढ़ाया ही था। ‘नागार्जुन मैथिल थे। मैथिली उनकी मातृभाषा थी। वे मैथिली में भी लिखते थे। वे सिर्फ मैथिली में ही नहीं बांग्ला और संस्कृत में भी लिखते थे। मैथिली का होना उनके लिए हिंदी का होने में बाधक नहीं सहायक और आवश्यक ही था। इसलिए मैथिली के साथ ही वे हिंदी के भी उतने ही थे। विचार किया जाना चाहिए कि यह जानने के बावजूद कि जो कद मिलना हिंदी में संभव है, वह बांग्ला और संस्कृत में तो नहीं ही संभव है, शायद मैथिली में भी संभव नहीं है; नागार्जुन उन भाषाओं में लिखने का जोखिम उठाने से हिचकते नहीं थे तो उसके पीछे क्या सोच सक्रिय हो सकता है? अँगरेजी में कभी हाथ आजमाया नहीं, इस बारे में भी सोचना चाहिए। यह भी, कि आज हम सिर्फ हिंदी में ही लिखने को क्यों काफी मानते हैं!
यह देखना चाहिए कि मैथिली में लिखना नागार्जुन के लिए हिंदी महाजातीयता की अपनी जड़ों से जुड़े रहने, बांग्ला में लिखना हिंदी महाजातीयता की निकटवर्ती जातीयता की संवेदना से जुड़ने और संस्कृत में लिखना छुटी हुई जीवंत संवेदना को भी हिंदी महाजातीयता में बनाये रखने की आवश्यकता की समझ से कितना अर्थवान है।’ (संदर्भः नवोन्मेष की चुनौती के सामने हिंदी समाज और साहित्य)। यहाँ यह भी याद रखने की जरूरत है कि ‘सामाजिकता का एक और महत्त्वपूर्ण अधार है भाषा। भाषा अपने आप में एक ऐसी सामाजिक शक्ति है जिसके साथ बहुत अधिक छेड़-छाड़ संभव नहीं हुआ करता है। इधर संचार माध्यमों की प्रभुता ने लेकिन सफलतापूर्वक देशी भाषाओं के साथ छेड़-छाड़ प्रारंभ किया है। कहना न होगा कि मातृभाषा का अपना महत्त्व हुआ करता है। निश्चित रूप से इसे स्वीकार करना ही चाहिए। लेकिन राष्ट्रभाषाओं या राजभाषाओं का भी अपना महत्त्व हुआ करता है। राष्ट्रीय जीवन में इसकी अवहेलना नहीं की जा सकती है, नहीं की जानी चाहिए। मातृभाषा प्रेम राष्ट्र या राजभाषा के प्रति दुराव या घृणा का आधार नहीं बन सकता है। इधर, मातृभाषा प्रेम के लिए विश्व स्तर पर नये सिरे से अभियान चलाया जा रहा है। मातृभाषा के नाम पर भावनात्मक शोषण अधिक आसान होता है। इसलिए मातृभाषा प्रेम के इस नये आग्रह के अंतर्निहित मूल अभिप्राय को धैर्य और सावधानी से समझना होगा। असल बात यह है कि बाजार अपनी स्वाभाविक धारक और शासक भाषा (Covering & Governing Language) के रूप में तो अंग्रेजी को चाहती है लेकिन लोकरंजन (Language of Entertainment) के महत्त्व को भी जानती है। इसलिए बाजार अपना लिखित कारोबार तो अंग्रेजी में करता है क्योंकि वह बहुत गोचर नहीं होता है लेकिन बोलचाल में अंग्रेजी मिश्रित भाषाओं को प्रश्रय देने की मुहिम को हवा देता है। वह बड़ी तेजी से हिंग्रेजी (हिंदी+अंग्रेजी) और बंग्रेजी (बांग्ला+अंग्रेजी) आदि जैसी भाषिक संरचनाओं को आकार देने के प्रयोग पर दत्तचित्त होकर काम कर रहा है। इसे भाषाओं के बीच आदान-प्रदान के नैसर्गिक प्रवाह समझना भूल है। इसके पीछे की उनकी सक्रियता और धूर्त्तता को समझना ही होगा। धूर्त्तता यह कि बांग्ला, हिंदी आदि पार्श्ववर्ती भाषाओं की नैसर्गिक निकटता किसी प्रकार बढ़ने न पाये बल्कि धीरे-धीरे दूरियाँ बढ़े। हिंग्लिश (हिंदी+इंग्लिश) और (बांग्ला+इंग्लिश) बंग्लिश का विकास तेजी से हो लेकिन किसी भी प्रकार से बांग्दी (बांग्ला+हिंदी) आदि के विकास की कोई सामाजिक आकांक्षा न बने। बल्कि, दूरियाँ इतनी बढ़े कि उनकी बोलियाँ और शैलियाँ भी उन से अपने स्वाभाविक, ऐतिहासिक, सामाजिक संबंधों को नकार दें। सामासिक एकता के सारे सामाजिक संबंध-सूत्र बाहरी दबाव और आंतरिक तनाव को झेल नहीं पायें और बिखर जाएँ।’ (संदर्भः आलोचना और समाज) एक खास बात लक्षित की जा सकती है कि किसी के प्रति गहरा लगाव और अनुराग बड़प्पन की सीमा नहीं शक्ति बनता है। नागार्जुन की रचनाशीलता के विविध आयामों पर गौर करने से यह सहज ही भासित होने लगता है कि नागार्जुन का गहरा लगाव और अनुराग जिन से भी था, वे कभी उनकी रचनाशीलता और उनके व्यक्तित्व की सीमा नहीं बन पाये। नागार्जुन का बुद्ध विचार से गहरा लगाव और अनुराग था लेकिन इसने मार्क्सवाद से उनके लगाव को कभी कम नहीं किया।
मार्क्सवाद के प्रति गहरा लगाव और अनुराग कभी उनकी राष्ट्रीय चेतना को कम नहीं कर पाई। चीन के संदर्भ में ही नहीं कई संदर्भों में लिखी उनकी कविताएँ साक्ष्य के तौर पर पढ़ी जा सकती हैं। वर्तमान के प्रति गहरा सरोकार कभी अतीत या भविष्य में उनकी आवाजाही को बाधित नहीं कर पायी। सफलकाम को अपनाने के लिए उन्होंने पूर्णकाम न हो सकनेवालों को त्याज्य नहीं प्रणम्य ही समझा। नागार्जुन ने रास्ते में मिले लोहे के गट्ठर को उठाने के लिए कभी लकड़ी के गट्ठर को कंधे से उतार नहीं फेंका और न सोने के गट्ठर को उठाने के लिए लोहे के गट्ठर को उतार फेंका। बल्कि रास्ते में जो भी काम का मिला उसे समेटते हुए चले। देश के प्रति लगाव कभी उनके देशातीत होने में बाधक नहीं हो पाया।
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