शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

बोलियों का सवाल

बोलियों, खासकर हिंदी से जुड़ी बोलियों का सवाल नये सिरे से उठ खड़ा हुआ है। विकास के नये माहौल में अस्मिताओं की नई कसमाहट को इसका कारण माना जा सकता है। आजादी के आंदोलन के दौरान अस्मिताओं की तलाश में बने राष्ट्र-बोध और आज के राष्ट्र-बोध में गुणात्मक अंतर आया है। एक बात समझनी होगी कि नकारात्मक रवैये से अस्मिताओं के उठान की प्रक्रियात्मक जटिलताओं को सुलझाया नहीं जा सकेगा। भाषा के सवालों को सामाजिकता के सवालों से अलग कर समझा नहीं जा सकता है। समाजव्यवस्था का मूलाधार जिन कतिपय तत्त्वों से निर्मित होता है कहना न होगा कि उन में भाषा की उपस्थिति लगभग अनिवार्य होती है। इधर हिंदी लेखकों का एक वर्ग उभर रहे इस राष्ट्र-बोध में अस्मिताओं के साथ बोलियों, जिन्हें इससे जुड़े लोगों का एक बड़ा वर्ग भाषाओं के रूप में चिह्नित करता है, की अनिवार्य उपस्थिति को लेकर काफी चिंतित है। कुछ हद तक उनकी चिंता जायज है। उनकी चिंता कुछ कम हो सकती है, यदि वे उभर रहे नये राष्ट्र-बोध के साथ समाजव्यवस्था, जिसे व्यापक रूप से आर्थिक व्य्वस्था से भी जोड़कर समझना चाहिए, के स्वरूप में आ रहे बदलाव को उसके सही परिप्रेक्ष्य में ग्रहण कर सकें। सही परिप्रेक्ष्य को ग्रहण करना इसलिए भी दुष्कर है कि बोलियों के सवालों को भाषा के सवाल के रूप में उठानेवालों के एक वर्ग में इस नये राष्ट्र-बोध के अनुक्रम में समाजव्यवस्था और अर्थव्यवस्था के विस्तार में न जाकर राजनीति और सच पूछिये तो साहित्यिक राजनीति के भँवर में फँसा हुआ है। कुछ लोगों के अति उत्साही विचार से हिंदी क्षेत्र में ही हिंदी विरोध की दुखद हवा बनती जा रही है। इन दोनों वर्गों के लोगों को समझना होगा। ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो इनमें से किसी के भी तर्क से पूरी तरह सहमत नहीं हैं। ऐसे लोग एक ओर तो हिंदी लेखकों के एक वर्ग के द्वारा बोलियों के पैरोकार के रूप में हिंदी द्रोही के रूप में प्रचारित किये जा रहे हैं, तो दूसरी ओर बोलियों के अति उत्साही पक्षधरों के द्वारा बोलियों के विरोधी के रूप में चिह्नित किये जा रहे हैं। इस दो तरफा खतरा के जोखिम को उठाते हुए भी इस पर विचार किया जाना जरूरी है।

बोलियों के सवालों पर हिंदी लेखकों का यह वर्ग वही सारे तर्क दे रहा है जो भिन्न भंगिमा से हिंदी के सवालों पर संस्कृत का पक्षधर दिया करता था; या घुमा-फिराकर अंगरेजी को अनिवार्य मनवाने के लिए दिया जाता है। भाषाएँ अपनी सामाजिक जरूरतों से प्रचलन में बनी रहती हैं न कि सिर्फ बौद्धिक जरूरतों से। हिंदी को सिर्फ बौद्धिक जरूरतों की भाषा मानकर चलनेवाले लोग अधिक परेशान हैं। इनको लगता है कि बोलियों के माध्यम से सामाजिक जरूरतें तो पहले ही पूरी होती रही हैं यदि इनकी बौद्धिक जरूरतें भी बोलियों के माध्यम से पूरी होने लग जायेंगी तो हिंदी के भविष्य को ग्रहण लग जायेगा। यह विडंबना ही है कि भारत में सामाजिक और बौद्धिक जरूरत की भाषा हमेशा भिन्न रही है। बौद्धिक जरूरत की भाषा कभी संस्कृत तो कभी अरबी-फारसी, अंगरेजी आदि रही है, जबकि सामाजिक जरूरतें अन्य भाषाओं के माध्यम से पूरी होती थी। हिंदी को ठीक अंगरेजी की जगह बिठने के उत्साह के मूल में कई व्याघातक भ्रम हैं, रघुवीर सहाय एवं उन जैसे लोगों के जेहन में इस भ्रम से उत्पन्न ब्याधि के खतरे से सावधान बने रहने का भाव सदा सक्रिय रहा है। सच्ची बात तो यह है कि हिंदी को सामाजिक जरूरत की भाषा के रूप में पहचान नहीं पाना हिंदी बौद्धिकों को हिंदी की बोलियों की समृद्धि से हिंदी के खतरे में पड़ जाने के भ्रम में डाल देता है। इस भ्रम के बाहर का सच यह है कि हिंदी भाषी इलाके में हिंदी बौद्धिक जरूरत की और हिंदी भाषी इलाके से बाहर समाजिक जरूरत की भाषा की दृष्टि से सफलतापूर्वक व्यवहार में है। किसी भी भाषा समूह के लोगों के लिए इतर भाषा समूह के लोगों से समाजिक संपर्क की स्वाभाविक भारतीय भाषा के रूप में हिंदी की स्वीकृति और प्रतिष्ठा का कारण हिंदी की अपनी बनावट में है। इतर भाषा समूह के लोगों के साथ सामाजिक संपर्क हर भाषा समूह के लोगों की सामाजिक जरूरत है। इसलिए हिंदी की सामाजिक जरूरत कोई कम नहीं है। कहना न होगा कि हिंदी, अपने विभिन्न भाषिक रूपों में भारत राष्ट्र की इस सामाजिक जरूरत को दक्षता के साथ पूरा करती है। अपने भाषा क्षेत्र से बाहर बौद्धिक जरूरत को हिंदी किस हद तक पूरा करती है यह जरूर सोचने की बात है। अपने क्षेत्र में बौद्धिक जरूरत और अपने क्षेत्र से बाहर सामाजिक जरूरत की भाषा होना हिंदी की विशिष्ट स्थिति है। 

अपनी तमाम सीमाओं और अवरोधों के बावजूद हिंदी आज सिर्फ हिंदी भाषियों की जरूरत नहीं है। स्वाभाविक रूप से हिंदी राष्ट्र की जरूरत है। ऐसे में हिंदी लेखकों के किसी वर्ग को हिंदी के किसी खतरे में होने की चिंता में परेशान होने की जरूरत नहीं है। हिंदी के लिए जब अन्य भारतीय भाषाएँ किसी प्रकार की परेशानी नहीं खड़ी करती हैं तो वे बोलियाँ या भाषाएँ कैसे परेशानी में डालेंगी जिसने हिंदी की बुनियाद को मजबूत बनाने में योगदान किया है? जो लोग हिंदी क्षेत्र की बोलियों या भाषाओं पर बात करने तक को लगभग राष्ट्र-द्रोह से जोड़कर देखते हैं वे लोग अपनी जड़ों से कटने के कारण उत्पन्न सामाजिक एवं राष्ट्रीय खतरे को अनदेखा करने के गुनहगार साबित होंगे। यह गुनाह हिंदी के हित को तो क्षतिग्रस्त करेगा ही, राष्ट्र-हित को भी कम क्षतिग्रस्त नहीं करेगा। 

आजादी के आंदोलन के दौरान जैसे-जैसे भारतीय राष्ट्र का रूप स्पष्ट हो रहा था, अस्मिताओं का मिजाज भी स्पष्ट हो रहा था। बड़ों के सामने छोटों का दब जाना एक स्वाभाविक-सा प्राकृतिक नियम है। इतिहास साक्षी है कि अस्मिताओं को धर्म से जोड़कर द्विराष्ट्रीयता का इतना बड़ा दबाव क्षेत्र बना दिया गया कि छोटी अस्मिताओं के लिए पर्याप्त स्पेस नहीं बचा। धर्म के नाम पर भारत से अलग होनेवाले पाकिस्तान में भाषायी अस्मिताओं के सवालों का इतना बड़ा बवंडर उठा कि पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लादेश बन जाने पर ही शांत हुआ। जातियों, धर्मों, भाषाओं की बहुलात्मकता से उत्पन्न अस्मिताओं का अस्तित्व भारत का अपना सच है। भाषाओं से जुड़ी अस्मिताओं में क्षेत्रीय तत्त्व का स्वाभाविक समावेश होने से भाषायी अस्मिताएँ अधिक ठोस और तीखी हैं। हमारे राष्ट्र-नायकों में संभवतः सबसे पहले लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने 1891 में ही भाषायी आधार पर राज्य और इस अर्थ में राष्ट्र के पुनर्गठन की जरूरत को रेखांकित किया था। तिलक ने भारत की प्रशासनिक इकाइयों के गठन को भिन्न प्रकार की ऐतिहासिक परिस्थितियों के प्रवाह में या फिर आकस्मिक रूप से हो गया मानते हुए भाषायी आधार पर इनके पुनर्गठन को हितकारी माना था। भाषायी आधार पर प्रशासनिक इकाइयों के पुनर्गठन से इनमें समरसता आने और देशी भाषाओं को अपने-अपने क्षेत्र में प्रोत्साहन मिलने जैसे दो बड़े लाभ का उन्होंने संकेत किया था। देशी भाषा के इस्तेमाल में नई चेतना के उभार का सांस्कृतिक पक्ष के अलावे अपना एक राजनीतिक पक्ष भी था। इस दौर में हम राजनीति के विवेकीकरण की प्रक्रिया को सक्रिय थी जबकि आज भारत में विवेक के ही राजनीतिकरण की प्रक्रिया सक्रिय है। जिस भाषा के साहित्य के हम लेखक हैं उस भाषा के समाज से हर स्तर पर हमारा जुड़ाव स्वाभाविक होना चाहिए। पाठकों के अभाव का रोना रोते हुए हिंदी लेखक को एक क्षण के लिए ठहरकर सोचना चाहिए कि अपने पाठक के तन-मन और जीवनयापन पर पड़नेवाली चोटों की कितनी तीव्र अनुगूँजों को वह सुन पा रहा है। यह कैसी विडंबना है कि जो लोग हिंदी-भाषी होने के कारण विभिन्न स्तर पर लांछित- प्रताड़ित होते हैं उनका मूल समाज उनको हिंदी भाषी के रूप में पहचान नहीं पाता है। ज्ञान के स्तर पर थोड़ा-बहुत पहचान भी लेता है संवेदना के स्तर पर बिल्कुल ही नहीं पहचान पाता है।

आजादी के आंदोलन के दौरान उत्तर और दक्षिण भारत की जो अर्थ-व्यंजना थी वह आज से भिन्न थी। आज धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहे उत्तर भारतीय पद में सिर्फ हिंदी भाषी माना जानेवाला इलाका शामिल है। विशेषण के रूप में भाषा के बदले भूगोल के प्रयोग के निहितार्थ को भी पढ़ा जाना चाहिए। उत्तर भारतीय पद की अर्थ-व्यंजना के अंतःकरण का इस्तेमाल अनात्मीयकरण के लिए हो रहा है। कहना न होगा कि अंतःकरण को उपकरण में बदलकर हासिल वर्चस्व ही वह तत्त्व है जो अपने एवं पराये, `हम' एवं `अन्य' या भीतरी एवं बाहरी का आधार बनाता है। रोजी-रोजगार और आर्थिक गतिविधियों में इस आधार की बड़ी भूमिका पारस्परिक व्यवहार और विनिमय में अंतर्विरोध पैदा करता है। भाषा से जुड़े किसी भी सवाल पर बात करते समय समाज को उससे बाहर रखना एक बुनियादी गलती है। जिसे हम हिंदी भाषी कहते हैं उसकी आत्मा भोजपुरी, मगही, मैथिली, बुंदेली, संथाली, नागपुरी आदि में ही मुखरित होती है; रोती है, गाती है। रघुवीर सहाय के अनुभव को याद करें तो भाषा को शक्ति देने की प्रार्थना करके पिटता हुआ यह समाज भारत राष्ट्र में अपने बचे रहने का ही आश्वासन माँग रहा है। दूसरी ओर यह भी सच है कि हिंदी से विलगाव या विरोध बचे रहने के ऐसे किसी दुष्प्राप्य आश्वासन के पूरा होने की संभावना को क्षतिग्रस्त ही करता है। सच बात तो यह है कि हिंदी के सामने असली चुनौती राष्ट्र की बौद्धिक जरूरत को पूरा करने के साथ ही अपने क्षेत्र की सामाजिक जरूरत को पूरा करनेवाली बोलियों के लिए सम्मानजनक जगह बनाने की है।

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