महिलाओं के खिलाफ अपराध की संख्या में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। यह बहुत ही चिंता की बात है। सच तो यह है कि अपराध में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। हम लगातार समाज के अपराधीकरण की तरफ बढ़ रहे हैं। अपराध को समाज में समायोजित करने के प्रति हमारा रवैया खतरनाक होता जा रहा है। इसके कारणों पर विचार करना चाहिेए। अपराध के प्रति शाशकीय रवैया और सामाजिक रवैया में कोई बहुत का अंतर नहीं दिखता है। अपराधियों के राजनीतिक-सामाजिक जुड़ावों से अगर उस पर राय नियंत्रित होने लगेगी तो यह तय मानिये कि हमारे भीतर अपराध को वैध बनानेवाले कीटाणु सक्रिय हैं। अपराध भी परस्पर जुड़े होते हैं।
महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अत्याचार पर अलग से चिंता करना उचित तो है, लेकिन पर्याप्त नहीं है। अक्सर इस तरह के सुझाव दिये जाते हैं कि महिलाओं को 'शालीन' वस्त्र पहनना चाहिए। शालीन आचरण करना चाहिए। इन सुझावों में कोई गलती नहीं है, लेकिन ऐसा सुझाव जब किसी अपराध के औचित्य को सिद्ध करने लगे या किसी अपराधी के बचाव की भूमिका बनाने लगे तो स्वाभाविक है कि इसकी वैसी ही प्रतिक्रिया होती है। जिस तरह के और जिन परिस्थितियों में महिलाओं पर अत्याचार होते हैं उनके विश्लेषण से यह साफ हो सकता है कि इनका संबंध पोशाक से उतना नहीं है। आखिर कभी कोई पुरुषों को यह सुझाव क्यों नहीं देता कि किसी महिला के 'अ-शालीन' पोशाक में दिखने पर उसे अपनी स्थिति को नियंत्रण में रखना चाहिए। यदि किसी की संपत्ति कोई हड़प ले तो उनका सुझाव यह तो नहीं होता है कि उसे अपनी संपत्ति को छुपाकर रखना चाहिए! पोशाक का यह तर्क विभिन्न रूपों में सामने आता है, जैसे महिलाओं को अकेले नहीं निकलना चाहिए, देर रात बाहर नहीं रहना चाहिए आदि।
असहिष्णुता, हिंसा, शोषण, अपराध, क्रूरता और पर-पीड़कता का प्रसार बहुत तेजी से हो रहा है। इसका सबसे बुरा असर महिलाओं की स्थिति पर हो रहा है। महिलाओं पर स्त्री होने के कारण शारीरिक और मानसिक अत्याचार और अनाचार की भारी बढ़त ने सभी को सकते में डाल दिया है। घर, परिवार, हाट, बाजार, सड़क, दफ्तर, खेत, कारखाना, विमान, रेल, बस, कार, अस्पताल, स्कूल, शहर, गाँव, जंगल, पहाड़ कोई जगह निरापद नहीं है, बूढ़ी, जवान, बच्ची, विकलांग, गरीब, अमीर, शिक्षित, अशिक्षित कोई नहीं खतरे से बाहर है। इस पर कैसे काबू पाया जाये? इसके कारणों को कैसे ठीक-ठीक पकड़ा जाये? इस तरह के वातावरण बन जाने का जीवन के अन्य क्षेत्र, रोजी-रोजगार, खेल-कूद, भ्रमण-पर्यटन, इश्क-मुहब्बत, सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंधों, हास-विलास, सामान्य भावनात्मक आदान-प्रदान, विश्वास की पारस्परिकता, व्यक्तित्व विकास पर पड़नेवाले असर को कैसे समझा जाये? बलात्कार के कितने तो रूप हैं, भाषिक बलात्कार, संवेगात्मक बलात्कार, निरुद्धात्मक बलात्कार, प्रतिशोधात्मक बलात्कार, लोभ-लालच के जाल में फँसाकर हासिल सहमति के हवाले से बलात्कार आदि। भयानक जानलेवा बलात्कार की घटनाओं की ही इतनी ज्यादा बढ़त हो गई है कि उसी के प्रभाव से निकलना मुश्किल हो रहा है। यहाँ बहुत अवकाश नहीं है फिर भी इतना तो कहना ही होगा कि विकास के गलत रास्ते पर हम चल पड़े हैं इस रास्ते की जाँच की जानी चाहिए। यह समझना भोलापन है कि विकास के गलत रास्ते से इसका कोई संबंध नहीं है। यह सिर्फ पोशाक का मामला नहीं है। जारी विकास के चरित्र को समझे बिना बात साफ नहीं हो सकती है। जारी विकास के चरित्र को समझे बिना न तो असहिष्णुता, हिंसा, शोषण, अपराध, क्रूरता और पर-पीड़कता के प्रसार को समझा जा सकता है और न ही महिलाओं पर स्त्री होने के कारण शारीरिक और मानसिक अत्याचार और अनाचार की भारी बढ़त और उस पर होनेवाली विभिन्न प्रतिक्रियाओं को ही समझा जा सकता है।
चिंता की बात यह है कि हम सामाजिक उत्पीड़कताओं के दौर में समाज के अपराधीकरण की तरफ बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं।
increasing violence against women is a matter of concern, but the problem is that instead of analyzing the root cause of this gargantuan problem, we tend to pass the onus on women i.e. their dress code, not to go outside in late night hours et al. But NCRB data tells the other story, women are more unsafe at their homes, in the hands of their near and dear ones. the recent incidents of "honour" killings, dowry deaths, increasing rate of feticide in our so called model cities... WHERE THE SECOND SEX IS SAFE .... ? The increasing pressure of market forces is rapidly changing our social gamut . ARE WE LISTENING....
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