गुरुवार, 7 अगस्त 2014

भाषा के व्यवहार के आग्रह में हमारे तर्क का आधार बहिष्कारात्मक होता है





भाषा व्यवहार पर धीरे-धीरे बात जोर पकड़ रही है। खासकर, हिंदी के साथ अन्य भारतीय भाषाओं के बोलनेवालों के संबंध के बारे में। राजकीय कार्यकलाप में हिंदी के प्रयोग के बारे में भी बात हो रही है। लोगों का अपना-अपना पक्ष है और उस पक्ष के अपने-अपने तर्क हैं। जिन्हें हिंदी के पक्षकार हिंदी की बोली मानते हैं, उन बोलियों की तरफ से भी बात उठ रही है। इस पर तार्किक ढंग से गौर किया जाना चाहिए। 



मैथिली को संवैधानिक रूप से अलग भाषा के रूप में स्वीकृति मिल चुकी है। जब भोजपुरी, ब्रज, अवधी, छत्तीसगढ़ी जैसी भाषाओं की, अलग भाषा के रूप में, संवैधानिक स्वीकृति की बात उठती है, तब हिंदी के पक्षकारों में सबसे ज्यादा बेचैनी बढ़ जाती है। उनके तर्कों के केंद्र में एक भावनात्मक सवाल होता है कि यदि ये सभी भाषाएँ स्वतंत्र भाषा के रूप में स्वीकृति हासिल कर लेंगी तो हिंदी का क्या होगा! हिंदी का क्या होगा, यानी हिंदी को संकट से बचाने के लिए इन भाषाओं की स्वतंत्र संवैधानिक स्वीकृति से बचना जरूरी है! अब भोजपुरी, ब्रज, अवधी, छत्तीसगढ़ी जैसी भाषाओं के पक्षकार पूछते हैं कि यदि हिंदी को संकट से बचाने के लिए अपने अस्तित्व को तिलांजलि दे दें तो भोजपुरी, ब्रज, अवधी, छत्तीसगढ़ी जैसी भाषाओं का क्या होगा, इस पर हिंदी के पक्षकार क्यों नहीं सोचते। दोनों ही तरफ से बहुत ही भावुक तर्क है, जिसका सार है कि यह अस्तित्व को बचाने का संघर्ष है। अस्तित्व बचाने के इस संघर्ष को कुछ लोग अस्मिता के संघर्ष के रूप में भी समझे और माने जाने का प्रस्ताव करते हैं। इस पर गंभीरता से सोचना चाहिए।


किसी ‘दूसरे’ के ‘अस्तित्व’ को बचाने के लिए कोई अपने अस्तित्व को समाप्त करने के फैसले के साथ क्यों होगा! हिंदी के पक्षकार लगे हाथ यह सवाल भी ठोक देते हैं कि यदि इन्हें स्वतंत्र भाषा की स्वीकृति मिल जायेगी तो वे अपने बच्चों की शिक्षा उसी भाषा में देने के लिए तैयार हो जायेंगे न? हालाँकि, इनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं होता है कि हिंदी के पक्षकारों के बच्चों की शिक्षा का माध्यम अंगरेजी क्यों बनती है! 

हिंदी के विद्वान अपनी मातृभाषा, यदि कोई हो तो, के अलावे हिंदी की सहभाषा अर्थात, भोजपुरी, ब्रज, अवधी, छत्तीसगढ़ी जैसी किसी ‘अपनी भाषा’ को ही क्यों नहीं सीखते! अन्य भारतीय भाषाओं के पक्षकारों की तरफ से भी हिंदी के पक्षकारों से यही सवाल पूछा जाता है कि एक तमिल (उदाहरण के लिए) तो हिंदी सीखता है, जानता है, लेकिन एक हिंदी भाषी में तमिल सीखने का आग्रह क्यों नहीं होता! अर्थात, एक तमिल हिंदी क्यों सीखे! यह कोई नहीं पूछता कि एक तमिल (उदाहरण के लिए) तो अंगरेजी सीखता है लेकिन अंगरेजों या अंगरेजी के पक्षकारों से भी तमिल सीखने का वैसा ही आग्रह तमिल का पक्षकार क्यों नहीं करता है। अंगरेजी के पक्षकारों में जब तमिल सीखने को आग्रह नहीं है तो कोई तमिल अंगरेजी क्यों सीखे, यह कोई नहीं पूछता!

एक बात साफ है कि भाषा के व्यवहार के आग्रह में हमारे तर्क का आधार बहिष्कारात्मक होता है, अंगरेजी अपवाद है। और सच पूछिये तो हिंदी भी अपवाद है। हिंदी सीखने का आग्रह हिंदी के हित से संचालित नहीं होता है। जैसे अंगरेजी सीखने का आग्रह भी अंगरेजी के हित से संचालित नहीं होता है। भाषा के व्यवहार का तर्क हमेशा जरूरत और व्याप्ति के आधार पर ही तय होता है। कोलकाता में हो या चेन्नै में जहाँ पूरे भारत के लोग रहते हैं वहाँ उनके बीच में संपर्क की व्यावहारिक भाषा हिंदी ही होती है, यदि किसी अन्य तरह का दबाव सक्रिय न हो। एक गुजराती एक पंजाबी से किस भारतीय भाषा में बात करता है, एक बांग्ला भाषी किसी तेलगू भाषी से किस भारतीय भाषा में बात करेगा, निश्चित रूप से हिंदी में। इसी तरह से एक भोजपुरी भाषी किसी मैथिली भाषी से भी हिंदी में ही बात करता है। अपवाद की बात अलग है लेकिन, एक तेलगू भाषी जब अपनी शिक्षा की माध्यम भाषा चुनता है तो वह या तो अंगरेजी को चुनेगा या तेलगू को, हिंदी को नहीं चुनेगा। इसी प्रकार, एक नेता पूरे भारत के साधारण नागरिकों को जब संबोधित करता है तो हिंदी का इस्तेमाल करता है। अकारण नहीं है कि एच डी देवेगौड़ा या सोनिया गाँधी जैसे नेता हिंदी सीखने लगते हैं। लेकिन इन्हें जब शासन करना होता है तो वे अंगरेजी का ही व्यवहार करते हैं। यानी हिंदी राजनीतिक, सामाजिक, व्यापारिक संपर्क और संवाद की भाषा के रूप में स्वीकृत है लेकिन ज्ञान, आधिकारिकता और शक्ति (शासन) की भाषा बनना इसके लिए अब भी चुनौती है। हिंदी को यह चुनौती मुख्यतः शासन के अंतःपुर के मिजाज और गौणतः अंगरेजी के रुआब की तरफ से है। 

मेरा अनुभव है कि संपर्क और संवाद की भाषा को तो बिना बहुत मेहनत के भी, कई बार अनायास ही, अर्जित किया जा सकता है लेकिन, ज्ञान और शासन की भाषा को सीखने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है, चाहे वह आपकी मातृभाषा के प्रारूप में ही क्यों न हो। क्योंकि ज्ञान और शासन की भाषा किसी की मातृभाषा हो ही नहीं सकती है। जिन्हें हिंदी भाषी माना जाता है या जो अपने को हिंदी भाषी मानते हैं वे हिंदी को ज्ञान और शक्ति की भाषा के रूप में अर्जित करने के लिए सामान्यतः कोई इच्छा भी नहीं रखते, विशेष उद्यम भी नहीं करते हैं; तात्कालिक तत्परता से आगे बढ़ नहीं पाते। इस तरह से देखें तो, तत्परता और उद्यम के अभाव के कारण भी अंगरेजी की चुनौती बड़ी है। तमाम राजनीतिक कारण धरे-के-धरे रह जायेंगे और ज्ञान, संवेदना और शक्ति (शासन) की भाषा के रूप में सक्षम होने पर हिंदी के व्यवहार का रास्ता आसान हो जायेगा ▬▬ इतना आत्मविश्वास और इतनी मेहनत का हौसला हिंदी के पक्षकारों में तो होना ही चाहिए। हिंदी के पक्षकारों में आत्मविश्वास और मेहनत के हौसला का अभाव अपनी ही बोलियों के अस्तित्व की माँग को हिंदी के अस्तित्व पर खतरे की तरह देखता रहता है। इनकी हालत उस रोगी की तरह है जो दवा को जहर और जहर को दवा मानने पर उतारू हो जाता है। मेरा इस तरह से सोचना कुछ लोगों की नजर में अपराध सरीखा है ▬▬ एक तरफ तो, हिंदी के पक्षकार को मेरी बात हिंदी के हित की विरोधी लगती है, दूसरी तरफ हिंदी की सहभाषाओं के पक्षकारों को भी ऐसा ही लगता है। मैं इस मुद्दे पर इसी तरह से सोचता हूँ। 

एक निवेदन करना जरूरी है, यहाँ बार-बार ‘पक्षकार’ शब्द का इस्तेमाल करना मेरे लिए भी बहुत ही पीड़ादायक रहा है, लेकिन मेरे पास कोई उपाय नहीं था इस के इस्तेमाल से मुँह चुराने का। 




2 टिप्‍पणियां:

  1. the complex issue of language "superiority" needs to analyzed and understood in the right perspective. Most of our so called intellectuals, while analyzing the sensitive issue of language, are detached from the ground realities and think of only their vested interests. it's high time that they should get rid of their narrow vision - widen their vision , embodying the principle of co-existence.

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