यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है। अनुभव क्या एक तरह से प्रतीति भर है। किसी अन्य का अनुभव भिन्न हो सकता है, प्रतीति भिन्न हो सकती है। हिंदी में किताब संतान की तरह होती है। संतान की हैसियत माता-पिता की हैसियत से तय होती है, ठीक उसी प्रकार किताब की हैसियत भी लेखक की हैसियत से तय होती है। बच्चे के जन्म के बाद ही जैसे माता-पिता को उसके नकछेदन, कनछेदन, रोग निरोधी ड्रॉप्स की चिंता होती है वैसे ही लेखक अपनी किताब के छपते ही उसके विमोचन, लोकार्पण, समीक्षा आदि की चिंता होती है। ब्लर्व लिखा जाता है, सुना है उसमें भी पैसा लगता है। समीक्षा (आलोचना नहीं) लिखवाने, छपवाने में भी चढ़ौआ लगता है, ऐसा सुना है। खर्चा होता है तो कोई बात नहीं, फिर उसकी भरपाई के लिए पुरस्कार आदि तो हैं ही। पुरस्कार समारोह आदि से जुड़े व्यवस्थापन का अपना काला-सफेद होता होगा। किसी होनहार-वीरवान लेखक की सकारात्मक दिलचस्पी दूसरे लेखक की किताब और उसकी समीक्षा में कम ही होती है। समीक्षा लिखना बच्चे की कुंडली तैयार करवाने जैसा है, इसमें ग्रह नक्षत्र के प्रभाव से भविष्य के संभावित-आशंकित फलाफल का विवेचन होता है। लेखक इसमें उतना और वैसा ही यकीन रखता है, जैसा और जितना भरोसा कुंडली तैयार करनेवाले पंडित की बातों पर कोई माँ-बाप रखता है। जिस की जैसी हैसियत, उसकी संतान और किताब की भी वैसी ही हैसियत! अब यह बात कोई मायने नहीं रखती है कि सही समीक्षा का प्रभाव समीक्षित पुस्तक से अधिक अजन्मी पुस्तकों की संभावनाओं के परिप्रेक्ष्य को स्वाभाविक और सहज रूप में तलाशता है। यह सहजता वैसी ही होती है, जैसी किसी शादी में शरीक कोई अगुआ संभावित वर-कन्याओं को गहकी नजर से तलाशता है। समीक्षा की यह उसी तरह तलाश अच्छी निगाह से नहीं देखी जाती है, जिस तरह मंडप में व्यस्त वर-कन्या के माता-पिता को यह नहीं सुहाता है। खैर, कुछ कुंडली कर्त्ता तो माँ-बाप की इच्छा के अनुसार बच्चे के भविष्य के सारे कर्मकांड का बोझ उठा लेते हैं, वैसे ही आलोचना के अधिकृत कुछ परमानंदी समीक्षक भी भविष्य के सारे कर्मकांड का बोझ उठाते रहे हैं। फिर आगे जैसी हैसियत हुई! जिस तरह, बच्चे को अंगरेजी माध्यम के स्कूल में दाखिला की कोशिश की जाती है और उसकी कीमत चुकाई जाती है। उसी तर्ज पर, लेखक की हैसियत के हिसाब से मुख्यतः अंग्रेजी (जो कि अन्यथा भारतीय भाषा ही है) और गौणतः भारतीय भाषाओं में पुस्तक के अनुवाद और प्रकाशन की व्यवस्था की जाती है। खर्चा उठायाता है। मुफ्त में नहीं होता है, यह सब।
हाँ, कुछ लेखक जरूर अपवाद हैं, जो इस पोथी-प्रक्रिया की पुष्टिवर्द्धक पद्धति से बाहर प्रिय-कर्म-रत हैं। लेकिन, वे कम ही जाने जाते हैं, माने तो बिल्कुल नहीं जाते हैं। पोथी-प्रक्रिया की पुष्टिवर्द्धक पद्धति से बाहर के लेखक की हालत वैसी ही है ▬▬ देखकर भी देखा नहीं कभी किसी ने उस नजर से। पोथी-प्रक्रिया की पुष्टिवर्द्धक पद्धति की अंतर्निहित संभावनाओं से समृद्ध इस माहौल में तो आशा ही आशा है!! हाँ, कुछ दुर्मुख संभावनाओं से समृद्ध इस माहौल में भी निराश हैं, ठीक उसी तरह जैसे विकास की ओर तेजी से बढ़ रहे भारत में कुछ लोग अपना भविष्य अंधकारमय देख रहे हैं। बेशी क्या कहना, पोथी-प्रक्रिया की पुष्टिवर्द्धक पद्धति से नहीं जुड़ सकते तो आत्मानंद में निमग्न रहने की सलाह है। आत्मानंद में निमग्नता भी एक कर्मकांड है और अपेक्षाकृत परमानंद हासिल करने से कम खर्चीला है। ऐसा है, यह कर्मकांड!
प्रफुल्ल जी, पुस्तक लेखन, प्रकाशन और समीक्षा संभव है व्यवसाय भी हो, पर मैंने बीच वाले एक को छोड़कर दो काम निस्वार्थ किये हैं. पत्र-पत्रिकाओं की मांग पर दर्जनों महत्वपूर्ण पुस्तकों की समीक्षाएं लिखी. प्रकाशकों से कुछ पारिश्रमिक भी मिले, पर किसी लेखक से मेरा कोई सीधा संवाद नहीं था. अब मै क्या बताऊँ- कमलेश्वर के 'कितने पाकिस्तान' की समीक्षा की कहानी. पुरे देश में इस पुस्तक की आलोचना हो रही थी. मार्क्सवादी खेमे से भी. मैंने पुस्तक खरीदी, पढ़ी और उस पर लम्बा आलेख मार डाला, पक्ष-विपक्ष, कला, संवेदना और सरोकारों की सारी बातें थी. और सीधे-सीधे 'साहित्य अकादेमी' को भेज दिया. राठी जी के प्रशंसात्मक पत्र के साथ स्वीकृति आई और प्रकाशन के बाद कमलेश्वर जी का लम्बा-सा पत्र. बाद में उसी उपन्यास पर उन्हें 'अकादेमी पुरस्कार' भी मिला. पर मेरा किसी से कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं था. बाद में कमलेश्वर जी ने मेरी पुस्तक की भूमिका लिखी, उस समय भी मैं उनसे नहीं मिल सका. किन्तु जीवन को इतना जी लेने के बाद अब समझ में आता है कि जो साहित्य राजनीति और राज नेताओं के विज्ञापन का काम करता है, वह खुद अपने लिए विज्ञापन क्यों नहीं करता? प्रकाशक और मित्रों के अरह के बावजूद मैंने अपनी किसी पुस्तक का लोकार्पण नहीं करवाया-यह मेरी मुर्खता थी. मेरे वाल पर लोकार्पण की जो तस्वीर हैं, मित्रों मित्रों के आग्रह पर मेरी पुस्तक के तीसरे संस्करण का लोकार्पण था, मेरे ही कालेज के यूजीसी सेमिनार के दौरान अगत अतिथिओं के बीच.
जवाब देंहटाएंजी। आश्वस्त हुआ।
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