भारत में कभी पंचायत,
कभी पौर सभा, कभी नगरनिगम, कभी विधान परिषद, कभी विधान सभा, कभी राज्य सभा,
तो कभी लोक सभा जैसी विभिन्न स्तर की जनतांत्रिक संस्थाओं के चुनाव होते ही रहते
हैं। चुनावों के दौरान भारी अफरा-तफरी मचती है। नागरिक जीवन बुरी तरह प्रभावित
होता है। खासकर लोकसभा के चुनाव के समय। चुनाव के ड्यूटी पर लगनवाले कर्मचारी से
लेकर सुरक्षा बलों तक हर कोई परेशान हाल रहता है। सार्वजनिक परिवहन पर तो इसका
ठप्पकारी असर पड़ता है। राजकोष पर खर्च का बोझ भी एक साथ बढ़ जाता है। आदर्श आचार
संहिता लागू होने पर कई जरूरी कदम उठाने से भी सरकार हिचक जाती है। कई बार आदर्श
आचार संहिता की ओट में सरकार जरूरी कदम उठाने में अपने को लाचार बताती है। दूसरा
पहलू यह है कि लोकलुभावन वायदों की बहार आ जाती है, एक-से-बढ़कर-एक वायदे किये
जाते हैं। इनमें से अधिकतर वायदे अव्यावहारिक होते हैं। अव्यावहारिक वायदों को पूरा करने की दिशा में कोशिश की तो बात ही क्या, निहायत व्यावहारिक किस्म के अधिकतर वायदों पर भी सत्ताधारी
दल ध्यान नहीं देता है। जनप्रतिनिधियों पर जनता की पकड़ बिल्कुल ही ढीली पड़ जाती
है।
चुनाव किसी भी
जनतांत्रिक व्यवस्था में प्राण के संचार का आधार होता है। लेकिन चुनाव के बाद जनता, अक्सर अपने को ठगा-सा महसूस
करने लगती है। ऐसे में चुनाव सुधार के विभिन्न प्रकारों पर विचार-विमर्श भी होता
रहता है। नागरिक जमात की ओर से बार-बार चुनाव सुधार की माँग उठती रहती है। नागरिक जमात
ही क्यों खुद चुनाव आयोग और उच्चतम न्यायालय भी चुनाव सुधार की जरूरत को अपने तरीके से रेखांकित
करता रहा है। इसमें आपराधिक मामलों में लिप्त और कानून की गिरफ्त में फँसे
लोगों के निर्वाचन प्रार्थी बनने पर पाबंदी, निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को वापस
बुलाने तथा खारिज किये जाने की भी माँग शामिल रही है। राजकोष से उम्मीदवारों के
चुनावी खर्च की प्रतिपूर्त्ति, चुनाव संबंधित चंदा सार्वजनिक रूप से ही दिये जाने
आदि के प्रवधानों को लागू करने की भी माँग रही है। कुल मिलाकर यह कि जनतंत्र के
सही ढंग से काम करते रहने के लिए चुनाव सुधार की जरूरत बहुत तेजी से महसूस की जा
रही है।
भारत का संघीय ढाँचा
द्विसदनीय है ▬▬ लोक सभा और राज्य सभा। हालाँकि, सभी राज्यों में द्विसदनीय
व्यवस्था नहीं है, अर्थात कुछ राज्यों में सिर्फ विधान सभा की व्यवस्था है, विधान
परिषद का कोई प्रावधान नहीं है। वित्त विधेयकों को
अपवाद माना जाये तो राज्य सभा का सभी विधायी कारोबार में समान महत्त्व है। फिर भी,
सरकार के गठन में लोक सभा के सदस्यों की ही भूमिका होती है। लकसभा के कम-से-कम पचास
प्रतिशत सदस्यों को समर्थन हासिल करनेवाला या महामहिम राष्ट्रपति को पचास प्रतिशत सदस्यों
को समर्थन हासिल करने का विश्वास दिलानेवाला व्यक्ति ही प्रधानमंत्री पद का
उपयुक्त दावेदार होता है। हालाँकि प्रधानमंत्री सहित कोई भी मंत्री अनिवार्यतः लोकसभा
का ही सदस्य हो यह संवैधानिक रूप से जरूरी नहीं है। बहुमत का फैसला सदन में ही
होता है। यानी संघ सरकार के गठन में राज्य सभा की कोई भूमिका नहीं होती है, लेकिन
विधायी कारोबार में उसका समान महत्त्व होता है। राज्य सभा में बहुमत के समर्थन का
भरोसा नहीं रहने पर कभी-कभी सरकार को परेशानी का सामना करना पड़ता है, हाथ बँधे
होने का एहसास होता है। राज्य सभा में बहुमत का समाँ धीरे-धीरे बदलता है और इस
बदलाव में कोई बड़ा झटका नहीं लगता है।
राज्य सभा स्थाई सदन
है। राज्य सभा कभी विघटित नहीं होती है। प्रत्येक दो साल पर दो तिहाई सदस्य राज्य
सभा की सदस्यता से मुक्त होते हैं और उतने ही नये सिरे से चुनकर आते हैं। लोकसभा
सभा स्थाई सदन नहीं है। यह पाँच साल में विघटित हो जाती है और फिर आम चुनाव के बाद
नये सिरे गठित होती है। इससे लोक सभा में बहुमत का समाँ हठात बदलता है और यह बदलाव
बड़ा झटका देता है। इस झटके को जनता और जनता पर लागू करनेवाली नौकरशाही दोनों ही ठीक से बर्दाश्त नहीं कर पाती हैं। बीच में
ही सरकार की नीतिगत प्राथमिकताओं में प्रतिमुखी बदलावों, नई योजनाओं के संदर्भ में
सरकारी की नीतियों में होनेवाले बदलाव का भी कई बार अच्छा असर नहीं पड़ता है।
दुहराव के जोखिम पर
एक बार फिर याद कर लेना प्रासंगिक है, प्रधानमंत्री सहित कोई भी मंत्री राज्य सभा
का, अर्थात स्थाई सदन का, सदस्य हो सकता है। ऐसे में दो प्रस्तावों पर विचार किया
जा सकता है▬▬
1.
लोक सभा को भी राज्य सभा के ढव
(पैटर्न) पर स्थाई सदन में बदल दिया जा सकता है।
2.
सरकार गठन के लिए बहुमत के निर्धारण
में राज्य सभा के सदस्यों की बराबर की भूमिका सुनिश्चित किये जाने पर विचार किया
जा सकता है।
3.
इन दोनों प्रस्तावों को एक साथ लागू
करने की संभावनाओं पर भी सोचा जा सकता है।
हालाँकि, इन
प्रस्तावों की संवैधानिक स्थिति या बुनियादी ढाँचे से संबंधित हने, न होने के बारे में संविधान विशेषज्ञ, वृहत्तर नागरिक
जमात, सरकार, सदन और उच्चतम न्यायालय विचार कर कोई रास्ता सुझा सकते हैं। जनतांत्रिक गुणवत्ता के लिए संरचना में सुधार की संभावाओं को गहराई से टटोलना समय की बड़ी जरूरत है।
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