जनतंत्र में जनता का फैसला सर्वोपरि होता है। इसके प्रति हर किसी को सम्मानशील होना चाहिए। इसकी व्याख्या भी की जाती है। सभी पक्ष अपनी दृष्टि से इसकी व्याख्या करता है। जो लोग सत्ता की चुनावी राजनीति में प्रत्यक्ष रूप से भागीदार हैं वे अपने लाभ-अलाभ के नजरिये से इसकी व्याख्या करते हैं, तो यह बात समझ में आती है। जाहिर है उनकी व्याख्या में उनके पूर्वग्रहों के लिए पर्याप्त जगह होती है। अपने इन पूर्वग्रहों को किनारे कर वे सहज-स्वाभाविक व्याख्या करेंगे इसकी उम्मीद करना भी आकाश में फसल के उगने का इंतजार करना है। लेकिन यह बात समझ में बिल्कुल नहीं आती है कि जो लोग सत्ता की चुनावी राजनीति में प्रत्यक्ष रूप से भागीदार नहीं हैं वे अपने लाभ-अलाभ को अपने नजरिये से पहचानने की कोशिश क्यों नहीं करते हैं। अपने नजरिये से पहचानना अर्थात नागरिक नजरिये से पहचानना। संसदीय राजनीति को अपनाने के इतने दिनों बाद, इतने सारे चुनावी नतीजों तथा उनके लाभ-अलाभ के नागरिक अनुभवों के बाद भी अब तक राजनीतिक समझ की राजनीतिक दृष्टि का हम में विकास नहीं हो पाया है।
अब तक के चुनावों में मिले विभिन्न प्रकार के जनादेशों की व्याख्याओं के चरित पर गौर करें तो यह बात बिल्कुल साफ-साफ समझ में आ जायेगी की जो लोग सत्ता की चुनावी राजनीति में प्रत्यक्ष रूप से भागीदार नहीं रहे हैं उनकी व्याख्याएँ भी राजनीतिक दलों की व्याख्याओं का ही विस्तार है उनका विकल्प नहीं। स्वतंत्र भारत में सत्ता की चुनावी राजनीति में प्रत्यक्ष रूप से भागीदारी नहीं करनेवालों का सबसे बड़ा आंदोलन जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुआ। जयप्रकाश आंदोलन सिर्फ राजनीतिकों का आंदोलन नहीं था। बल्कि अधिक सही बात तो यह है कि वह एक नागरिक आंदोलन था जो बहुत जल्दी ही राजनीतिक आंदोलन में बदल गया। आपातकाल के दौरान जो चुनाव हुआ वह राजनीतिक दलों के ही बीच का मामला बनकर रह जाने से सीमित नहीं था। देश के विशाल नागरिक जमात ने इसमें स्वतःस्फूर्त्त ढंग से स्व-संगठित होकर भाग लिया। भारत संघ का सत्ता समूह बदल गया, इस सत्ता समूह को सत्ताधारी दल समझना भूल है। उसके बाद संपन्न हुए प्रांतों के चुनाव में भी इसका सकारात्मक असर बना रहा। इस जनादेश की जो व्याख्या उस समय सामने आई उसमें नागरिक समझ या तो गायब थी या फिर सत्ता और चुनावी दंगल में शामिल राजनीतिक दलों की समझ से नत्थी होकर रह गई थी। इस नत्थीकरण का ही नतीजा था कि जयप्रकाश नारायण समेत इस आंदोलन के सभी नागरिक भागीदार तेजी से विच्छिन्न तथा छिन्न-भिन्न होकर अपना न्यूनतम महत्त्व से भी वंचित हो गये।
अभी हाल ही में अण्णा हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोध और प्रभावी लोकपाल, नागरिक माँगपत्र या सीटीजन चार्टर के मुद्दे विराट नागरिक आंदोलन संगठित हुआ। लेकिन यह नागरिक आंदोलन भी आत्मघाती तेजी से के साथ चुनावी राजनीति के प्रत्यक्ष भागीदार में बदलकर रह गया। अपनी हिचक और असहमति के बावजूद अण्णा ऐसा होने को रोक नहीं पाये। अरविंद केजरीवाल के चेहरे को साने रखकर आम आदमी पार्टी सामने आई। नागरिक आंदोलन से जमीनी और शिखर स्तर पर जुड़े लोगों का बहुत बड़ा तबका आम आदमी पार्टी के साथ अपना जुड़ाव महसूस करता रहा। इस बहुत बड़े तबका के लिए चुनावी राजनीति के प्रत्यक्ष भागीदारी से असहमति रखनेवाले लोग राह का रोड़ा बनकर रह गये। दिल्ली विधान सभा में अप्रत्याशित जनसमर्थन के बावजूद बहुमत से थोड़ा कम रह जाने के कारण संसदीय राजनीति की बाध्यताओं से आम आदमी पार्टी की सरकार बनी और बिगड़ी। इस सरकार को लेकर उभरा नागरिक उत्साह एक तमाशा से आगे नहीं बढ़ पाया। इसके बाद हुए लोकसभा के सोलहवें आम चुनाव के बाद इस तमाशा का तो मजमा ही लुट गया। इस समय भी चुनावी नतीजों को नागरिक नजरिये से नहीं समझा गया। अभी विधान सभा निलंबित है, क्या होगा यह देखने की बात है।
इसी तरह कई राज्यों में अभी संपन्न हुए उपचुनावों के नतीजों को लेकर भी जो व्याख्या सामने आ रही है, वह नागरिक व्याख्या नहीं है। पत्रकारों और समाचारपत्रों का मूल सरोकार नागरिक जमात से है । पत्रकार और समाचारपत्र जनादेश की व्याख्या नागरिक जमात के नजरिये से करें यही अपेक्षित है। यह ठीक है कि उत्तर प्रदेश में वहाँ के सत्ताधारी दल को बढ़त मिली है, राजस्थान में सत्ताधारी दल को झटका लगा है। लेकिन इसे धर्मनिरपेक्षता की जीत बताना नागरिक नजरिये का निष्कर्ष नहीं हो सकता है। भारत तब भी धर्मनिरपेक्ष देश था जब न तो आज की तरह संविधान था न जनतंत्र था और न चुनावी राजनीति थी। धर्मनिरपेक्षता भारत का मूल सामाजिक स्वभाव है। चुनावी नतीजों के साथ इसे जीतता या हारता हुआ देखना-दिखाना राजनीति की शैली हो सकती है, यह नागरिक जमात का निष्कर्ष नहीं हो सकता है। इतने सारे दंगों, बलात्कारों, दबंगइयों, क्रूरताओं आदि को झेलतनेवाला नागरिक जमात सत्ताधारी दल की प्रशासनिक विफलताओं को भुलाते हुए धर्मनिरपेक्षता की इस जीत के जश्न में शामिल नहीं हो सकता है।
यहाँ सिर्फ इतना ही ध्यान दिलाना है कि चुनाव से मिलनेवाले जनादेश की राजनीतिक व्याख्या से नागरिक व्याख्या के नत्थी हो जाने से बचना क्यों जरूरी है।
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