बुधवार, 20 अगस्त 2014

साहस इस समय▬ का पर करूँ श्रृँगार! पिया मोर आन्हर हे...

आजकल साहस पर बहुत बात हो रही है। साहित्य से जुड़े लोग कवि साहित्यकार में साहस की कमी पर बात कर रहे हैं। जाहिर है, साहस की कमी पर बात का संदर्भ अभी यहाँ, मुख्य रूप से कवि या लेखक के साहस पर केंद्रित है। इसे ध्यान में रखते हुए फेसबुक पर दोस्तों की राय जनना चाहा था कि कविता में साहस और कवि के साहस का मतलब क्या होता है? दृश्य संकेत के आधार पर कहा जा सकता है कि तेइस लोगों ने इस सवाल को देखा और कुछ दोस्तों ने इस पर अपनी राय भी रखी। जिन लोगों ने देखा उनके प्रति आभार और जिन लोगों ने इस पर राय दी उनके प्रति आभार के साथ ही उस पर, संक्षेप में ही सही, विचार जरूरी है।
सुंदर सृजक ने कहा▬ व्यवस्था के विरुद्ध साहसी होकर लिखना और पुरस्कृत होने पर दहाड़ कर पुरस्कार पर उठाये गये सवालों का सामना करना.. मठाधीश के खिलाफ लड़ना।

सुंदर सृजक जी के इस कथन के संदर्भ में निवेदन है कि 'साहस' को स्पष्ट किये बिना, 'साहसी होकर लिखने' की बात का आशय कैसे साफ हो सकता है! खैर, जो मैं समझ पा रहा हूँ। व्यवस्था (जहाँ तक मैं समझता हूँ उनका आशय मुख्यतः व्यवस्था की अव्यवस्था से है) के विरुद्ध लिखना, पुरस्कार प्राप्त होने पर (ग्रहण करना) सवाल उठानेवालों के खिलाफ दहाड़ कर आवाज उठाना और मठाधीश से लड़ना ▬▬ साहस का लक्षण है। अब, व्यवस्था या अव्यवस्था के विरोध और मठाधीश से लड़ने पर विचार करना जरूरी है।
 अपर्णा साह ने कहा ▬ जवाब लिख देना था न..
वैसे भी और खासकर, अपर्णा साह की बात का सम्मान करते हुए, इस सवाल का जवाब देना जरूरी है। मैं जवाब देने की कोशिश करूँगा।
वसीम आलम ने कहा▬ ऐसी लेखनी जो आपको निडर बनाती हो, या आप निडर होकर लिखते हो।
वसीम आलम की बात में निहित संकेत को समझते हुए डर, निडर बनने/ होने और निडर होकर लिखने पर बात की जानी चाहिए।
हितेन्द्र पटेल ने कहा▬ साहस दिख जाता है। वैसे जिससे पावर के साथ वालों से भिड़ने की संभावना बनती हो वो साहस है, और जिस कवि के पास पावर के साथ लड़ने का जज्वा हो उसके साहस का मतलब है। वैसे कवि होने के बाद यह साहस का प्रश्न आता है।
हितेन्द्र पटेल की बात के गूढ़ार्थ को समझते हुए यह बात साफ होती है कि साहस को अलग से समझने की जरूरत नहीं है वह दिख जाता है (अगर हो तो), अर्थात साहस की दृश्यमानता पर बात करना जरूरी है। पावर के साथ वालों से भिड़ने के जज्वा की संभावना का साहस से संबंध है। जी हाँ, भिड़ने की संभावना को ध्यान में रखते हुए साहस के नकारात्मक और सकारात्मक स्वरूप पर बात की जा सकती है। हितेन्द्र पटेल साहस के प्रश्न को कवि होने के बाद की स्थिति से जोड़ते हैं। कुल मिलाकर यह कि साहस की दृश्यमानता, पावर के साथ भिड़ने की संभावना और कवि होने के बाद की स्थिति पर बात करना जरूरी है। यानी साहस है या नहीं यह पावर के साथ लड़ने या टकराव के जज्वा से दिख सकता है।
शुभाशीष कुमार ने कहा▬ कविता में साहस का मतलब है काव्य की पुरानी परंपराओं को तोड़कर नई परंपरा की स्थापना जब कि कवि के साहस से मतलब है संवेदनशील विषयों पर बेवाकी से लिखना।
शुभाशीष कुमार काव्य की पुरानी परंपराओं को तोड़ने, नई परंपरा को बनाने और संवेदनशील विषयों पर बेवाकी से लिखना साहस का लक्षण है। परंपरा और संवेदनशील विषय पर बेवाक उक्ति को देखना जरूरी है।
रूपा सिंह ने कहा▬ जहाँ साहस है वहीं अतिक्रमण है... जहाँ अतिक्रमण है... कवि या रचनाकार वहाँ साहसी है।
रूपा सिंह के संकेत को पकड़ते हुए यह बात सामने आ रही है कि अतिक्रमण साहस का लक्षण है तो, साहस और अतिक्रमण के संबंध पर गौर करना जरूरी है।
नूर मुहम्मद नूर ने कहा▬ जरूरी नहीं कि साहसी कविता का कवि साहसी भी हो... हिंदी में साहसी कवियों की नौटंकी ही ज्यादा है...
नूर मुहम्मद नूर की बात को ध्यान में रखते हुए, हालाँकि उन्होंने भी साहस को स्पष्ट नहीं किया है, साहसी कविता, कवि के साहस और कवियों की नौटंकी पर बात करना साहस को समझने में मददगार हो सकता है।
नवल शर्मा ने कहा▬ कवि के साहस से कविता में जवानी ओ रवानी आ जाती है।
नवल शर्मा की मानें तो कविता में जवानी और रवानी का होना कविता में कवि के साहस की परख का जरूरी आधार है।
संध्या कुलकर्णी ने कहा▬ शायद... लिखना एकदम सत्य।
संध्या कुलकर्णी का संकेत सत्य लिखना साहस है। तो, सत्य, साहस और कविता के संबंध पर विचार करना जरूरी है।
बाल कृष्ण मिश्र ने कहा▬ कवि साहसी है तो उसे व्यक्तिगत फायदा होगा और यदि कविता में साहस है तो समाज को।
व्यक्तिगत फायदा, सामाजिक फायदा के संबंध पर बात करने से साहस को समझा जा सकेगा।
सरिता कुमारी ने कहा▬ दोनो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब कवि किसी विषय को उठाता है तो उसे कई सारे विरोधों का सामना करना पड़ता है और कवि सत्य को लिखता है तो खुद साहसी हो जाता है, मुक्तिबोध, नागार्जुन आदि बहुत सारे कवियों की रचनाएँ हैं। कवि का साहस कविता में खुद-ब-खुद साहस ला देता है। मैथिलीशरण गुप्त के साकेत में कैकेयी को जो सम्मान दिया गया पहले कभी न मिला।
सरिता कुमारी के अनुसार सत्य लिखने के लिए विरोध का सामना करना साहस है, उदाहरण मुक्तिबोध, नागार्जुन, मैथिलीशरण गुप्त के 'साकेत' में कैकेयी का सम्मान। सत्य लिखने के विरोध का सामना करने में साहस का संकेत है। सत्य और साहस पर बात करते हुए यह स्पष्ट हो सकता है।
किरण शाहीन ने कहा▬ जो शरीर और आत्मा का मतलब होता है इंटीग्रिटी है या नहीं यह देखने की बात है।
किरण शाहीन ने संरचना और अंतर्वस्तु (इसे कला और जीवन में सामंजस्य भी कहा जा सकता है) के संबंध की जीवंतता को सुनिश्चित करने को कवि और कविता में साहस के लक्षण के रूप में चिह्नित किया है। जाहिर है, जीवन और कला के सामंजस्य के संदर्भ में कवि के साहस और कविता में साहस को समझने की कोशिश करनी होगी।

और अब मुझे कहना यह है कि

कविता, सत्य और साहस

कवि और साहित्यकार को इसी समाज में जीना पड़ता है। इसी समाज से अन्न-पानी मिलता है। नागार्जुन कहते हैं, `जनसाधारण – पाठकवर्ग ही हमारे अन्नदाता हैं। हमारे अन्नदाता कल नहीं तो परसों अवश्य सुखी होंगे, फिर अपने साहित्यकार की सुधि वे जरूर ही लेंगे। फिलहाल, जनसाधारण की तरह यदि पेट की आग बुझाने के लिए आप पान की दुकान खोल लें तो उसमें हर्ज क्या है?' (नागार्जुन रचनावली - 6 में संकलितः राज्याश्रय और साहित्य जीविकाः पुस्कतक जगत, दिसंबर 1958)  अर्थात, जब तक पाठकवर्ग अपने साहित्यकार की सुधि ले तब तक अपने काम को जारी रखना कवि साहित्यकार का साहस है।

स्वप्न, आकांक्षा और हासिल जीवन के संश्लेष के व्यक्ति के माध्यम से भाषा में प्रकट होनेवाली मानव जाति की सर्वाधिक संवेदनशील सामाजिक अभिव्यक्ति कविता है। अकेला या निखालिस सत्य साहित्य का मूल्य नहीं है। जीवन में सच का महत्त्व है, तो झूठ का भी अपना महत्त्व है। कविता (साहित्य) झूठ में मुँह चुराकर बैठे सच को हासिल करती है तो सत्य में सम्मान का आसन जमाये झूठ का आसन छीन लेने को तत्पर रहती है। कविता का सत्य धर्म,  दर्शन और इतिहास के सत्य से गुणात्मक स्तर पर भिन्न होता है। कविता में साहस का अर्थ होता है सहन करने की शक्ति और शक्ति को सहन करने से इनकार। यह सब आसान नहीं है। तब तक अपने धीरज को बनाये रखना जब तक उसके अन्नदाता उसकी सुधि लेने की स्थिति में नहीं होते हैं, तब तक सासंसारिक जरूरतों को पूरा करने के लिए जो भी वैध काम हो उसे बेहिचक करना। पाठक के अलावा किसी अन्य व्यक्ति या समूह को कोई लेखक अपने अन्नदाता के रूप में स्वीकार करता है तो यह माना जाना चाहिए कि उसमें साहस की स्वाभाविक कमी है। पाठक के अलावे किसी और को 'अपना बॉस' मानना कवि साहित्यकार के मजबूर होने या साहस की कमी का संकेत है।

यदि हमारी संवेगात्मक प्रज्ञा संवेगात्मक दक्षता से समर्थित नहीं है और हम अपने पूर्वग्रहों और पूर्वरागों से, कुछ देर के लिए ही सही, मुक्त नहीं हो सकते तो हम, साहित्य तो एक तरफ, किसी भी भाषिक संरचना के मर्म तक नहीं पहुँच सकते। सच तो यह है कि पूर्वग्रह और पूर्वराग की बहुरूपी सक्रियताओं से हमारी संवेगात्मक प्रज्ञा संवेगात्मक दक्षता ठीक न किये जा सकने की हद तक क्षतिग्रस्त हो जाती है। इस स्थिति में संवाद की संभावनाएँ बहुत बुरी तरह अवरुद्ध हो जाती हैं। कवि साहित्यकार का साहस अपनी संवेगात्मक प्रज्ञा और संवेगात्मक दक्षता को पूर्वग्रहों और पूर्वरागों के दुष्प्रभाव से बचाने के साथ इस मामले में पाठ और पाठक के बीच सच्चे संवाद के वातावरण के बनने में मदद करना भी है।

निडरता और साहस का स्रोत

निडरता और साहस के स्रोत की तलाश करने के पहले एक बार मुक्तिबोध की बात पर ध्यान देना उचित है। जीना जरूरी है और मुक्तिबोध बताते हैं, `संवेदनशील मनुष्य को जीने के लिए, दो बातें विशेष रूप से आवश्यक हैं। एक तो यह कि सांसारिक क्षेत्र में उसकी सर्वांगीण सामंजस्यपूर्ण उन्नति होती चली जाये; दूसरे, उसके सम्मुख कोई ऐसा आदर्श हो जिसके लिए वह जी सके या मर सके।' (समाज और साहित्यः मुक्तिबोध रचनावली, भाग-5)

अब सांसारिक क्षेत्र में साहित्यकार की सर्वांगीण सामंजस्यपूर्ण उन्नति की संभावना का आधार पाठकवर्ग है। हिंदी कवि, साहित्यकार को पाठक (समाज) का कितना औसत समर्थन हासिल है, इस पर अलग से कुछ कहने की जरूरत नहीं है। ऊपर से यह भी सच है कि आज हिंदी लेखक के सम्मुख ऐसा कोई दृश्य सार्वजनिक आदर्श भी नहीं है जिसके लिए वह जी सके या मर सके। तो फिर, साहस का स्रोत पूरी तर से सूखा हुआ है! जो इस स्रोत को सूखेपन की तरफ ध्यान नहीं देता और कवि साहित्यकार से साहस की माँग करता है या तो वह भोला है या फिर सुरक्षित जीवन का अभ्यासी है। तो क्या कवि साहित्यकार को साहस के स्रोत के अभाव में अनैतिक हो जाने की छूट मिल जानी चाहिए? बिल्कुल नहीं। साथ ही साहस की माँग के औचित्य को समझनेवालों को भी चाहिए कि वह कवि साहित्यकर के साहस के वैकल्पिक स्रोत के अभाव की यथासंभव क्षतिपूर्त्ति के मर्म को समझे। यह मर्म समझे बिना साहस के सवाल का व्यवहार सड़सी की तरह करना साहित्य सृजन की प्रेरणाओं की संवेदनशीलता को निकृष्टतम स्तर पर आहत करता है।

कवियों का साहस और साहस की नौटंकी

स्रोत सूखा हो तो कवि में साहस के होने की स्थिति का अनुमान करना बहुत कठिन नहीं है। लेकिन, बोलना अर्थात मुँह खोलना ही, बाहर ही नहीं कई बार घर में भी, अपने आप में साहस का काम है और फिर कविता या साहित्य के माध्यम से बोलना तो और बड़े साहस का काम है। कवि साहित्यकार वास्तव में अपने कवि साहित्यकार होने की औकात से बाहर जाकर अपना काम करता है, और वास्तविक चुनौतियों का सामना होने पर उसका साहस 'नौटंकी' जैसा हो जाता है, तो एक गहरे अर्थ में उसकी नीयत पर चोट करने के पहले उस की स्थिति को समझने की कोशिश करनी चाहिए। जो साहस दिख जाता है वह साहस कवि साहित्यकार का नहीं बल्कि उसकी आजीविका के संदर्भों का होता है। हिंदी के संदर्भ में अधिकतर मामलों में आजीविका अध्यापन, अधिकार संपन्न पदाधिकार, पत्रकारिता सरकारी-गैरसरकारी साधारण नौकरी आदि से जुड़ी होती है। तो जो साहस दिखता है वह अध्यापक, अधिकारी, पत्रकार, नौकर आदि का होता है लेखक का नहीं। कवि होने के उपरांत शक्ति, साहस की दृश्यमानता खा सवाल उठेगा लेकिन पहले यह तो पता कर लें कि जीवन की किन टेढ़ी-सीधी गलियों से गुजरता हुआ  कोई 'कवि बनता' है! मुश्किल यह है कि जिन्हें यह पता नहीं कि कितने गन्ने की पेराई के बाद मुट्ठी भर मिठास हाथ आती है, वे कवि साहित्यकार के साहस को नापने का फीता हाथ में लिये बौरा रहे हैं!

व्यवस्था विरोध, मठाधीश और पुरस्कार

हर असहमति विरोध नहीं होती है। विरोध में की गई अभिव्यक्ति भी दरअस्ल विरोध नहीं होती है। विरोध है जब उस काम का अभिव्यक्ति से नहीं बल्कि काम से विरोध हो। कहने की इजाजत हो तो आग लगाये जाने का विरोध उस पर पानी डालना है। जिस व्यवस्था से कवि साहित्यकर रोज प्रताड़ित होता है उसी व्यवस्था को उसके साहस का असली स्रोत, यानी पब्लिक जिस तरह बर्दाश्त करती है, उसे भी उसी तरह बर्दाश्त करना पड़ता, सहने को साहस की परख की कसौटी बनाना पड़ता है। सच है, कवि साहित्यकार नागरिक मन की अनुगूँजों को भास्वर करने के आत्मार्पित दायित्व से बंधा होता है। लेकिन वह कितना कातर हो जाता है जब वही समूह उसकी आवाज में अपने दर्द की अनुगूँजों को पहचानने से इनकार कर देता है, बल्कि खिल्ली भी उड़ाता है और उससे विमुख होकर विदूषकों के सम्मुख हो जाता है, उसका सम्मान करता है। कवि होने के उपरांत शक्ति और साहस की दृश्यमानता में निहित कदाचित अदृश्य क्लैब को पहचाना न जा सके तो कवि साहित्यकार के साहस से अभिभूत होने की आशंका बढ़ जाती है या फिर कवि साहित्यकार के साहस को नौटंकी घोषित करने की उत्कटता बढ़ जाती है, ये दोनों ही खतरानक प्रवृत्ति हैं। साहित्य में मठाधीश कोई और नहीं कवि की आजीविका का बॉस होता है। यदि विभागाध्यक्ष भी कवि है तो उसके माध्यम से जिसे परीक्षा पास करनी है, शोध का काम पूरा करना है, रोजी हासिल करने में मदद लेनी है, पदोन्नति सुनिश्चित करनी है तो उसका कोई मातहत उसका विरोध करता है तो पिछड़ जाता है। समर्थन करता है तो एक मठाधीश के बनने में मदद करता है। खुद अपना भविष्य सँवारने की सफल-विफल कोशिश करता है, तो बात कवि साहित्यकार के साहस की उठ खड़ी होती है! संयोग से इस कथन का प्रारूप अध्यापन के क्षेत्र में लगे लोगों का है, वैसे यह कहीं भी हो सकता है, पत्रकारिता, दफ्तर कहीं भी। इससे आगे के साहस की माँग कवि साहित्यकार के सच्चे संत, नेता आदि होने की माँग है, उसके कवि साहित्यकार होने की माँग नहीं। कहना जरूरी है कि कविता साहित्य का दार्शनिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, वैयक्तिक पक्ष भी होता है लेकिन उसका अपना पक्ष इन सब के इतर और अतिरिक्त भी होता है। कविता साहित्य के इन्हीं इतर और अतिरिक्त पक्ष के होने में ही कविता साहित्य के होने का जादुई असर छुपा होता है!

परंपरा से सलूक का साहस

परंपरा के साथ कवि का सलूक एक भिन्न तरह का तो होता ही है, जीवन व्यवहार में उसका अनुपालन सामाजिक अमुमोदन और प्रचलन पर निर्भर करता है। अतिक्रमण सामान्यतः नकारात्मक होता है जो दूसरे के हिस्से को अपने दखल में लेने से संबंधित होता है। हाँ यह सच है कि खुद को अतिक्रमित करने का साहस रचना और रचनाकार में हो तो वह उसे आंतरिक द्वंद्व और गतिशीलता, कभी-कभी प्रगतिशीलता से भी जोड़ देता है। जीवन और कला के सामंजस्य में भी रचना और रचनाकार को साहस की जरूरत होती है, लेकिन यहाँ साहस कौशल के इस्तेमाल को ध्वनित करता है।

त्रिलोचन की कविता है, बस खुद ही देख लीजिये ▬▬ 

बिस्तरा है न चारपाई है
जिंदगी ख़ूब हमने पाई है

कल अँधेरे में जिसने सर काटा
नाम मत लो वह हमारा भाई है

गुल की ख़ातिर करे भी क्यों कोई
उस की तक़दीर में बुराई है

जो भी बुराई है अपने माथे है
उनके हाथों महज़ भलाई है

(गुलाब और बुलबुल में संकलित)

परंपरा से सलूक का साहस क्या है! इस सच को स्वीकारते हुए कि हमारा समाज ऊपर से बँटा हुआ ही नहीं, भीतर से फटा हुआ भी है, लेखक बाभन-बनिया-ठाकुर-कायस्थ होकर, दलित होकर, स्त्री होकर, अल्प संख्यक, वामपंथी, काँगरेसी, भाजपाई आदि होकर लिख रहा हो या उसी रूप में पढ़ा जा रहा हो तो इस बँटे-फटे समाज के कवि साहित्यकार का साहस इस बात में है कि वह बाभन-बनिया-ठाकुर-कायस्थ, दलित, स्त्री, अल्प संख्यक, वामपंथी, काँगरेसी, भाजपाई आदि होते हुए भी अपने ऐसा होने से ऊपर उठकर, अर्थात खुद के बाँट-फाट को अतिक्रमितकर, लिखने और पढ़ने की कोशिश करे। इस बँटे-फटे समाज के कवि साहित्यकार के साहस का मतलब इस सामाजिक बाँट-फाट के चलते मिलनेवाले मान और अपमान दोनों को नकारते हुए, दोनों को सहते हुए तथा दोनों से मुकाबला करते हुए बाँट-फाट के दुष्चक्र से समाज के बाहर निकलने का रास्ता खोजे। इस अर्थ में कवि साहित्यकार का साहस अकेले का उद्यम नहीं हो सकता; अकेले की सिर्फ बुजदिली होती है। हिंदी के लेखक संगठन अपनी भूमिका खो चुके हैं; सदस्यता के आधार पर अ-संगठित किंतु समझ और संवेदना के आधार पर संगठित होने में सक्षम कवि साहित्यकार का साहस, दूसरों की नहीं, सब से पहले अपनी बुजदिली को समझने और स्वीकार करने और अधिकतम स्तर तक उससे निजात पाने के प्रयास में भी है। दूसरों पर आरोप लगाने को अपने साहस का सबूत मानना किसी और का तो पता नहीं, कवि साहित्यकार को शोभा नहीं देता।

आलोचनात्मक विवेक का साहस और  लेखक की छवि

जिस डॉक्टर से हम अपना/ अपनों का इलाज करवा रहे होते हैं, उसकी डिग्री नहीं चेक करते हैं। जिस गाड़ी में सफर करते हैं उसके ड्राइवर के लाइसेंस नहीं देखते। असल में, जीवन में बहुत सारी स्थितियों को खुद से परखे बिना हम मान लेते हैं; हमारी तरफ से दूसरा यह काम करता है। यही व्यवस्था है। कहना यह है कि छवि, इमेज की भी जाँच नहीं होती है। महानता भी, सकारात्मक हो या नकारात्मक, एक छवि है। खुद से परखे बिना हम इसे मान लेते हैं। महानता की जाँच नहीं होती। अगर परख भी लिया तो छवि को बदलना आसान नहीं होता। क्योंकि उस छवि को खुद से परखे बिना अपना मान चुकी बड़ी आबादी, उस छवि के बाहर की किसी भिन्न बात को परखे बिना उसके विरोध में उतर आती है। विवेक के अभाव में आलोचना विक्षिप्त होती है और आलोचना-दृष्टि के अभाव में विवेक अंधा हो जाता है। मानसिक संतुलन के लिए भी और सामाजिक संतुलन के लिए भी आलोचनात्मक विवेक के सक्रिय रहने का अपना महत्त्व है। हमारे समय में आलोचना और विवेक दोनों के लिए जगह कम होती जा रही है ▬▬ विक्षिप्तताओं और अंधताओं से ग्रस्त समाज में मनुष्य और मनुष्यता के प्रति आदर की भावना के लिए जगह कम पड़ने लग जाती है। समाज में 'देवता/ दैत्य' की ही चलती है। लेखक में समाज के अंदर अपने सम्मान के लिए जगह बनाने की बहुत तीब्र छटपटाहट होती है। समाज के अंदर लेखक के सम्मान के लिए महानता की जो छवि बनाई जाती है, उस छवि में देव-तत्त्व अधिक सक्रिय रहता है और उसके सामाजिक वजूद का मानुष-तत्त्व निष्क्रिय। अपने ऊपर लदे देव-तत्त्व से लड़कर जीतना लेखक के सामाजिक वजूद के मानुष-तत्त्व के लिए बहुत मुश्किल ही नहीं, असंभव होता है। लेखक के कंठ में उसकी पहली चीख फँसी रहती है। अपनी पहली चीख की अनुगूँजों के साथ लेखक जितना 'बड़ा' होता जाता है, वह चीख उतना ही उसके भीतर धँसती चली जाती है। ‘देवता/दैत्य छवि निर्माण’ की यह प्रक्रिया संस्कृति विकास की प्रक्रिया है। यह छवि पूरे समाज में एक ही तरह से प्रगाढ़ नहीं रहती है। किसी समूह/ समुदाय में यह छवि अधिक प्रगाढ़ तो किसी में कम प्रगाढ़ होती है। यहाँ तक कि किसी समूह/ समुदाय में यह छवि विपरीत भी होती है ▬▬ अर्थात किसी समूह/ समुदाय में यह छवि ‘देवता’ की होती है तो किसी समूह/ समुदाय में यह ‘दैत्य’ की होती है। संस्कृति विकास की प्रक्रिया का अंग होने के कारण लेखक को इस ‘देवता/दैत्य छवि निर्माण’ की प्रक्रिया से संघर्ष करते रहना पड़ता है। यह लेखक के मनुष्य बने रहने का संघर्ष है। मनुष्य के सम्मानपूर्ण जगह के लिए अपने भीतर ‘देवता और दैत्य’ दोनों से संघर्ष करना पड़ता है। यह आसान संघर्ष नहीं है। अपने भीतर, आलोचनात्मक विवेक को सक्रिय रखने के इस संघर्ष को जारी रखने में लेखक के साहस की परीक्षा होती है, जिसमें वह लगभग अकेला होता है। कहना न होगा कि वह अंततः अपनी किसी छवि में कैद कर लिया जाता है। जो लेखक इस तरह से अपनी ही छवि में कैद होकर सुख प्राप्त करता है उसके स्वातंत्र्य-बोध और जो लेखक इस तरह से अपनी ही छवि में कैद किये जाने के दुख को समझता है उसके स्वातंत्र्य-बोध में अंतर होता है। लेखक के साहस का मतलब उसके स्वातंत्र्य-बोध में छिपा होता है। यह स्वातंत्र्य-बोध लेखक का अपना होकर भी अपने पाठक के समवेत से ही आयातित होता है।

हैबरमास की संकल्पना के पब्लिक स्फीयर, जनभूमि, पर ही कवि साहित्यकार सक्रिय होता है। और पब्लिक का साहस ही उसका साहस होता है। सार्त्र को याद करें तो हिंदी कवि साहित्यकार के पास तो पाठक का ही टोटा है, उसके साथ पब्लिक के होने की बात ही क्या! लिखना और पढ़ना एक ही क्रिया के दो छोर हैं। हिंदी पाठक की स्थिति लोकप्रिय फिल्म 'शोले' के ठाकुर की तरह है, जो अपनी तरफ से लड़नेवाले की हिफाजत का कोई प्रयास हीं कर सकता, क्योंकि उसके हाथ पहले कटे होते हैं! जबकि, अच्छा नहीं लिख पानेवाले कवि साहित्यकार के साथ भी पाठक को इस विचार के साथ उदात्त भाव से खड़ा होना चाहिए कि यह हमारा लेखक है, आज अच्छा नहीं लिख पाया तो क्या, कल जरूर अच्छा लिखेगा! जिस पाठक वर्ग में अपने लेखक के अच्छा, अर्थात साहस पूर्ण लिखने की प्रतीक्षा का साहस न हो उसके लेखक में साहस कहाँ से आये! साहस अकेले कवि साहित्यकार का नहीं पूरे समाज का होता है। सिर्फ साहित्यकारों के संदर्भ में साहस का सवाल उठाकर भी इसे पूरे समाज एवं अन्य क्षेत्र में सक्रिय लोगों के संदर्भ में देखे जाने पर लगातार बात होनी चाहिए, तभी कवि साहित्यकार के साहस का व्यावहारिक अर्थ पकड़ में आयेगा। इस दिशा में अगर यह प्रस्थान भी बन सके तो काफी है। और अंत में ▬▬

कविता इस समय

वह एक मजेदार दिन था
मेरी आँख धीरे-धीरे खुल रही थी
इंद्रियाँ धीरे-धीरे सक्रिय हो रही थीं
मैं शहर की तरफ बढ़ रहा था

मैंने देखा, सुना पर समझा नहीं
देखा कि कुछ लोग हैं जो
पहले फुसफुसाते हैं, फिर जोर से
बहुत जोर से चीखने-चिल्लाने लग जाते हैं

मैं ने सुना कुछ लोग
बात-बात पर कलम निकाल लेते हैं

मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर क्या था वह सब

समझता भी कैसे ▬▬
सुनने की चीज को देख रहा था
देखने की चीज को सुन रहा था

मेरा कसूर यह कि मुझे ऐसा ही पढ़ाया गया था

मैंने पता लगाया कि
आखिर उस जमात के लोग कर क्या रहे थे
समझ में आया कि वे वक्त को बदल रहे थे

वक्त को बदलना
अच्छा मुहावरा था, मुझे पसंद आ गया
मैं भी जमात में घुसने की जुगत में लग गया

पर यह आसान काम नहीं साबित हुआ मेरे लिए
मैंने बहुत गौर करने पर पाया कि
मैं वक्त को नहीं, वक्त मुझे बदल रहा है

मैं बाहर से चिल्लाता रहा
लेकिन जमात ने इशारा किया ▬▬
हम वक्त को बदलने में कामयाब हो रहे हैं
बस तुम खुद को सम्हालो, बुजदिल!

मुझे बुजदिल शब्द पर ऐतराज था हालाँकि मैं वही हूँ,
बस शब्द बदलने की बात मैंने जमात से की

जमात को इस बात पर ऐतराज था
उनका कहना भी सही था कि
वे वक्त को बदलने के लिए प्रतिबद्ध हैं शब्द बदलने के लिए नहीं

मैं अब क्या करता
जमात के बाहर शब्द बदलता रहा
चीख की चादर बदलता रहा
क्या! आप नहीं समझ रहे!
आप क्या उम्मीद करते हैं!

मैं क्या कर सकता हूँ?
आप नहीं समझ रहे, मैं ही कहाँ समझ रहा!

फेसबुक संदर्भः

▬▬ कविता में साहस और कवि के साहस का मतलब क्या होता है?
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Manoj Pandey, Mahesh Jaiswal, Manoj Kumarjha और 23 अन्य को यह पसंद है.

Sundar Srijak vyavsthaa ke viruddh saahasi hokar likhnaa aur puskrit hone par dahaad kar purskaar par uthaaye gaye sawaalon kaa saamnaa karnaa ...mathaadhishon ke khilaaf ladnaa....

18 अगस्त पर 10:07 अपराह्न · पसंद

Wasim Alam Aisi lekhni jo aapko nidar banati ho,ya aap nidar hokar likhte ho

18 अगस्त पर 10:31 अपराह्न · पसंद

Hitendra Patel saahas deekh jata hai. waise jis se power ke sath walo se bhidne ki sambhavana banti ho wo sahas hai, aur jis kavi ke pas power ke sath ladne ka zazba ho uske sahas ka matlab hai. waise kavi hone ke bad yah sahas ka prashna aata hai.

18 अगस्त पर 10:50 अपराह्न · पसंद · 1

Subhasish Kumar kavita me sahash ka matlab hai kavya ki purani paramparaon ko todkar nayi parampara ki sthapna jabki kavi ke sahash se matlab hai samvedanshil visayon par bebaki se likhna. Kya mai sahi hu?

18 अगस्त पर 11:03 अपराह्न · पसंद · 1

Rupa Singh Jahan sahas hai wahin atikraman hai.. jahan atikraman hai ..kavi ya rachnakar wahan sahsi hai.अनुवाद देखिए

18 अगस्त पर 11:35 अपराह्न · पसंद · 1

Noor Mohammad Noor Ztoori nhi ke sahsee kavita ka kavi sahsee bhi hon.....hindi menn ssahsee kaviyon ki noutanki hi ziyada hai.....

18 अगस्त पर 11:55 अपराह्न · पसंद

Nawal Sharma कवि के साहस से कविता में जवानी ओ ' रवानी आ जाती है ।
19 अगस्त पर 12:48 पूर्वाह्न · पसंद


Bal Krishna Mishra · 6 पारस्परिक मित्र
kavi sahsi hai to use vyaktigat fayda hoga aur yadi kavita men sahas hai to samaz ko.

19 अगस्त पर 02:45 पूर्वाह्न · पसंद

Sarita Kumari Dono ek hi sike ke do pahalu hai.jab kavi kisi visay ko uthata hai to use kai sare virodho ka samna karna parta hai par kavi satya ko likhta hai to khud b khud sahasi ho jati hai muktibodh,nagarjun etc bahut sare kaviyo ki rachnaye hai.kavi ka sahas kavita me khud b khud sahas la deta hai,maithalisharan gupt ke saaket me kaikai ko jo saman diya gaya pahale kavi n mila.
19 अगस्त पर 06:44 अपराह्न · पसंद


Kiran Shaheen Wahi , jo shareer aur aatma ka mutlub hota hai, integrity hai ya nahi, ye dekhne ki baat hai
कल 02:32 पूर्वाह्न बजे · पसंद

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