रविवार, 17 अगस्त 2014

कैसे रुके महिलाओं पर अत्याचार, कैसे...

समाज में उत्पीड़कता भयानक ढंग से बढ़ रही है। उत्पीड़कताएँ बहुआयामी हैं। और इस पर लगाम लगानेवाला एक भी कारगर आयाम नहीं है! क्या हो गया मनुष्य को? इन में भी सबसे अधिक भयानक है महिलाओं पर होनेवाला अत्याचार। कैसे रुके महिलाओं पर अत्याचार? घटनाओं और दुस्साह का अनुमान लगा सकते हैं? क्या कभी अतीत में किसी महिला जज को किसी अभियुक्त के वकील से यह कहना पड़ा कि अपने क्लाएंट को कहिए कि मुझे लवलेटर भेजना बंद करे, नहीं तो मैं सीबीआई से इसकी शिकायत करूँगी। अपनी अच्छी पृष्ठभूमि का हवाला देते हुए  जज ने जो कहा क्या यह साधारण बात है! अभियुक्त का दुस्साहस तो देखिये! अभियुक्त कोई साधारण पृष्ठभूमि का नहीं है, बल्कि उच्च शिक्षित और एक बैंक में प्रबंध-सह-निदेशक के पद पर रहते हुए घूसखोरी का आरोपी है। क्या हाल है!

एक और मामला सामने आया है जो चिंता का बढ़ा रहा है। अभी संघ के एक प्रचारक की हत्या के मामले में यह बात सामने आ रही है कि एक साध्वी के आकर्षण में उसकी हत्या हुई। हत्या चाहे जिस कारण से भी हुई हो उससे किसी भी समाज में चिंता बढ़नी चाहिए। लेकिन जो लोग किसी संकल्प से जुड़े होते हैं, उनकी हत्या इस तरह के प्रकरण में फँसकर हो, तो वह अतिरिक्त चिंता का कारण तो हो ही जाता है। 

अभी प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस समारोह में लालकिला से संबोधित करते हुए कहा कि महिलाओं पर होनेवाले अत्याचार की घटना से सर शर्म से झुक जाता है। लालकिला से उन्होंने 'अभिभावकों' को सलाह दी कि अपने बेटों पर नजर रखें, उससे पूछें कहाँ जा रहे हो, कब आओगे, क्या काम है आदि। इधर बिहार के मुख्य मंत्री ने अपने बेटे का नाम एक आपराधिक प्रसंग से जुड़ता देखकर कहा कि कोई भी गर्ल फ्रेंड रख सकता है।  ऐसा कहते हुए शर्म महसूस नहीं की, जरा भी नहीं की। उनके ऐसा कहने से बहुतों का सिर शर्म से झुक गया, लेकिन उनका नहीं। 

इस तरह की घटनाओं के सामने आते ही जिस तरह के बयान आने लगते हैं, उन्हीं बयानों से अपराध को बल मिलता है। जाति, धर्म, राजनीति, गुट, कुटुंब इन सभी  अनिवार्य बन या बना दिये प्रसंगों से विलग होकर जब तक समाज का अगुआ कहा जानेवाला समूह अपनी भूमिका को दुरुस्त नहीं करता इस तरह के अपराध में कमी आने के या इस पर किसी तरह के कढ़े रुख अख्तियार किये जाने के आसार नहीं दिखते हैं। मुश्किल यह है कि किसी भी मामले में, सिर्फ सत्ता या वोट की राजनीति के कारण ही नहीं अन्य व्यक्तिगत लाभ के कारण भी हमारा जाति, धर्म, राजनीति, गुट, कुटुंब के प्रसंगों से हमारा उठना असंभव होता जा रहा है। खतरनाक बात यह है कि हमारे अगुआ लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि ''लाभ के निजीकरण और हानि के समाजीकरण'' का सिद्धांत यहाँ लागू नहीं हो सकता। क्यों लागू नहीं हो सकता! इसलिए कि किसी अमीर परिवार में निठल्ला सहित सभी अमीर होते हैं, लेकिन अमीर-गरीब किसी भी परिवार में सभी पुरुष ही तो नहीं होते हैं न! इसलिए महिलाओं पर होनेवाले अत्यचार की बढ़ती हुई घटनाओं को रोकने के लिए सभी को गंभीरता और संवेदनशीलता के साथ सोचना चाहिए।

महिलाओं पर होनेवाले अत्यचार का प्रभाव समाज, संस्कृति पर अन्य अपराधों की तुलना में गुणात्मक रूप से भिन्न तरह का होता है। खतरा बहुत तेजी से हमारी तरफ बढ़ा चला आ रहा है। आज जब समाज में और परिवार में लैंगिक समानता की जोरदार माँग है, हमारे पास निर्जेंडर भाषा नहीं है। भाषा के निर्जेंडर न होने के कारण संवाद में व्यवधान उत्पन्न होता है और लैंगिक समानता की जोरदार माँग खतरे में पड़ जाती है। यह खतरा बढ़ रहा है, क्या इस खतरे की आहट को हम बिल्कुल ही नहीं सुन पा रहे हैं!!!

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें