शनिवार, 16 अगस्त 2014

भारत के लोग भावुक उम्मीदों से भरे हैं, सुनो राष्ट्र, कान लगाकर सुनो



लालकिला से प्रधानमंत्री के बोलने का अपना महत्त्व है। प्रत्येक साल 15 अगस्त, स्वतंत्रता दिवस के दिन प्रधानमंत्री की बात सुनने के लिए, राष्ट्र का कान खड़ा रहता है। इस दिन लालकिला पर राष्ट्र-ध्वज को फहराना एक सपने के आसमान छूने जैसा होता है। तिरंगा के फहराने के साथ पूरे राष्ट्र की आशा, आकांक्षा लहराती है। सरकार के संकल्प, राष्ट्र की शक्ति, सहिष्णुता और साहस की झलक भाषण में ध्वनित होती है। 15 अगस्त, स्वतंत्रता दिवस के दिन प्रधानमंत्री की कही बात की अनुगूँज अगले साल 15 अगस्त तक सुनाई देती है, कई बार उसके बहुत बाद तक भी। इसमें, ऐसे कई गूढ़ संकेत होते हैं जिसे पूरी दुनिया पढ़ने की कोशिश करती है। यह सच है कि लालकिला से बोली गई हर बात अतीत में पूरी निष्ठा और बुद्धिमत्ता से जमीनी स्तर पर लागू हुई ही हो ऐसी बात नहीं, फिर भी इसका महत्त्व कम नहीं है। इस बार भी लालकिला से प्रधानमंत्री का भाषण हुआ। इसकी भी चर्चा हो रही है। इसके गूढ़ संकेतों को पूरी दुनिया अपने ढंग से पढ़ रही होगी। इस बार हुए भाषण की कुछ ध्यान देने योग्य खासियत रही है। जैसे,

प्रधानमंत्री के भाषण का अलिखित होना

प्रधानमंत्री ने इस बार भाषण पढ़ा नहीं, बल्कि भाषण किया। भाषण पढ़ने की तुलना में भाषण करना हमेशा अधिक प्रभावशाली और श्रेयस्कर होता है। भाषण देनेवाला अगर सुवक्ता हो तो फिर क्या कहने! तो फिर पहले के प्रधानमंत्री, अपवाद हो सकते हैं, लिखित भाषण पढ़ने की ही परंपरा पर क्यों चलते रहे? क्या उन्हें भाषण करना नहीं आता था! इस पर यकीन करना थोड़ा कठिन है। छोटी-बड़ी संस्थाओं की तरफ से उसके सचिव संस्था की साधारण सभा में अपना प्रतिवेदन पढ़ते हैं; अर्थात वह लिखित होता है। क्या सिर्फ लिखित होता है? नहीं अनुमोदित भी होता है। कौन अनुमोदित करता है? क्या सभी सदस्य? नहीं, साधारण सभा ने पहले से ही इसका दायित्व कार्य निर्वाही समिति (इक्चिक्यूटिव कमिटी) को सौंपा होता है। क्योंकि सचिव जिसकी तरफ से बोल रहा होता है, उसका अनुमोदन भी आवश्यक होता है। सचिव का भाषण व्यक्तिगत नहीं होता है। क्या प्रधानमंत्री का लालकिला से दिया जानेवाला भाषण व्यक्तिगत होता है? क्या प्रधानमंत्री के भाषण के प्रति सरकार की कोई जवाबदेही नहीं होती है? सरकार तो तभी जवाबदेह हो सकती है न जब उसने उस भाषण का अनमुोदन किया हो? भारतीय संविधान के प्रावधानों के अनुसार सरकार मंत्रीमंडल होता है और प्रधानमंत्री उसके कार्य प्रधान होते हैं। सरकार का गठन सामूहिक नेतृत्व के सिद्धांत के आधार होता है। यदि कोई प्रस्ताव मंत्रीमंडल में बहुमत के आधार पर अनुमोदित नहीं होता है तो उसे लागू नहीं किया जा सकता है। यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री ऐसे किसी प्रस्ताव को पारित करवाने के लिए मंत्रीमंडल के पुनर्गठन की सिफारिश राष्ट्रपति से करें, लेकिन उस प्रस्ताव को फिर नये मंत्रीमंडल से ही सही, परंतु अनुमोदित तो करवाना ही होता है। संवैधानिक प्रमुख महामहिम राष्ट्रपति के अभिभाषण को भी मंत्रीमंडल का अनुमोदन हासिल होना आवश्यक होता है, क्योंकि वह पदासीन व्यक्ति का निजी भाषण नहीं होता है। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि स्वतंत्रता दिवस पर लालकिला से किये गये प्रधानमंत्री के भाषण का मंत्रीमंडल से अनुमोदित न होना कहीं सामूहिक नेतृत्व के आधार पर सरकार के गठन के सिद्धांत का स्थगन और संसदीय एकतंत्र के दौर के आरंभ की सूचना तो नहीं है? अलिखित भाषण के अनुमोदन का कोई प्रावधान नहीं है। भाषण के बहुत प्रभावशाली होने की प्रशंसा के बावजूद इस सवाल की वैधता पर कोई असर नहीं पड़ता है।

बलात्कार की घटनाओं पर शर्म से सिर का झुकना

यह सच है कि बलात्कार की इतनी अधिक घटनाएँ सामने आ रही है कि किसी का भी सिर शर्म से झुक जाना ही स्वाभाविक है। यह भी ठीक है कि इस तरह की घटनाओं को रोक पाना अकेले शासन-प्रशासन के बूता में नहीं होता है, हालाँकि, शर्म से सिर झुकाने के अलावे इस तरह की घटनाओं को रोकने में शासन-प्रशासन की बहुत बड़ी जिम्मेवारी भी बनती ही है। लेकिन जिस तरीके और तेवर से यह कहा गया कि क्या आप अपने बेटों को पूछने की हिम्मत करते हैं कि कहाँ जा रहे हो, कब आआोगे, आदि-आदि तो लगा कि यह स्कूल-कॉलेज स्तर की अभिभावक सभा में अभिभावकों की पस्त हिम्मत को ललकारने के लिए बोला जा रहा है। हाँ, अभिभावकों को अपने बेटा/ बेटों से जरूर पूछना चाहिए, परंतु इस मामले में अपराध के आँकड़े क्या बताते हैँ? हालाँकि, 18 वर्ष की उम्र सीमा पार कर जाने के बाद 'बेटा' वैधानिक रूप से अपना अभिभावक खुद हो जाता है, फिर भी अपराध के आँकड़े बताते हैं कि इस अपराध में 'अभिभावक की देख-रेख में पलनेवाले बेटों' के शामिल रहने से अधिक वे लिप्त होते हैं जो, 'अभिभावक की देख-रेख में पलनेवाले बेटों' के समूह से कब के बाहर हो चुके होते हैं। इस तरह की शर्मनाक घटना को रोकने के लिए अभिभावकों की हिम्मत को ललकारना जरूरी ही था इसके साथ ही शासन-प्रशासन को भी कुछ अधिक प्रभावी ढंग से कहा जाना चाहिए था। 

शौचालय प्रबंध
यह भी बड़ी चिंता की बात है। चुनावी भाषण के दौरान भी इस मुद्दे को उठाया गया था। यह स्वास्थ्य-संबंधी विश्व-मानक और गरीबी को परिभाषित किये जाने से भी जुड़ा हुआ मामला है। इस लक्ष्य को जितना जल्दी पूरा किया जा सके उतना ही अच्छा है। शौचालयों के कारगर होने के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी की उपलब्धता भी जरूरी शर्त्त है। रेलवे के कुछ बड़े स्टेशनों/ ऊँचे दर्जे के विश्रामालयों को छोड़ दें तो, रेल के 10% शौचालय भी व्यवहार के लिए सुरक्षित नहीं हैं। महिलाओं के लिए चिह्नित शौचालयों की दशा तो और भी खराब बताई जाती है। इतनी बड़ी रेल-व्यवस्था जब शौचालय के सुरक्षित व्यवहार को सुनिश्चित नहीं कर पा रही है तब जिन गरीबों के पास रहने को घर नहीं है, अपने वास की जमीन नहीं है, जिन स्कूलों को छत नहीं है उनके लिए शौचालय के सुरक्षित व्यवहार का अवसर उपलब्ध होना कितना कठिन है, कहने की जरूरत नहीं है। असल में यह जीवन की अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए संसाधनों की उपलब्धता और आधिकारिकता से जुड़ा हुआ मामला है। उपलब्धता और आधिकारिकता को सुनिश्चित करने के संदर्भ में सुनियोजित तरीके से काम किये जाने की जरूरत है। लेकिन यह क्या, यहाँ तो योजना आयोग को ही निष्प्रभावी बनाने की योजना बन रही है। यह सच है कि उपलब्धता और आधिकारिकता को सुनिश्चित करने के संदर्भ में योजना आयोग की सीमाएँ रही हैं, लेकिन एक अर्थ में यह सरकार की ही सीमाओं का ही नतीजा या बाइप्रोडक्ट रही है। मंत्रीमंडल के सामूहिक निर्णय पर गठित योजना आयोग पर नेहरू -परिकल्पना की छाप रही है, हो सकता है इतने दिनों में उसके ढाँचे में ठीक न किये जा सकने लायक विकृतियाँ आ गई हों। सरकार सक्षम ढाँचा तैयार कर अपने लक्ष्य की तरफ कैसे बढ़ती है, यह देखने की बात है।


इस सरकार से लोगों को बहुत उम्मीद है। एक अर्से बाद अखंड बहुमतवाली सरकार अपने काम पर है। इससे भी लोगों की उम्मीदों में पंख लगे हैं। संसदीय एकतंत्र के दौर के आरंभ की सूचना पाकर भी कुछ लोग खुश होंगे। स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री के भाषण का अपना महत्त्व है, जिसमें थोड़ी जगह भावुकताओं के लिए भी होती है और थोड़ी जगह उम्मीद के लिए भी होती है। इस समय उम्मीद के आकाश में जमीन के ख्वाब उड़ान पर हैं। भारत के लोग भावुक उम्मीदों से भरे हैं, सुनो राष्ट्र, कान लगाकर सुनो।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें