विचार में वितंडा का दबदबा बढ़ रहा है। बड़ी-से-बड़ी और कड़ी-से-कड़ी बात कहते समय उसके संगत-असंगत होने-न-होने को लेकर विचारक या वक्ता को किसी अंतर्द्वंद्व या दुविधा में उलझते-सुलझते हुए देखना, अब दुर्लभ प्रसंग है। इस मनोवृत्ति का प्रतिफलन हिंदी साहित्य की आलोचना के संदर्भ में भी प्रकट हो रहा है। प्रेमचंद हों, निराला हों... कोई हो विचार में वितंडा के असर से बच नहीं पा रहा है। विचार में वितंडा कैसे बनता है!! विचार में वितंडा का एक नमूना नागार्जुन के संदर्भ में। ध्यान रहे ये मेरे विचार नहीं हैं, मैं विचार के वितंडा बनने को बताने के लिए इसे रख रहा हूँ। मेरे जानते, अभी तक, किसी ने इस तरह से कहा नहीं है, लेकिन बहुत जल्दी ऐसे और इस तरह से कहे जाने की आशंका विचार के आकाश में पल रही है।
नागार्जुन की बहुज्ञात, बहुपठित और प्रशंसित कविता है --- ‘बाकी बच गया अंडा’। यह कविता शुरू होती है, ‘पाँच पूत भारतमाता के’ और पूरी होती है, ‘बाकी बच गया अंडा’। नागार्जुन की इस कविता में भारतमाता के सिर्फ पूत क्यों हैं? यह क्यों है कि पूत तो पाँच हैं, पुत्री एक भी नहीं! सामाजिक-राजनीतिक जीवन में महिलाओं की सक्रिय उपस्थिति की, आपराधिक नहीं भी तो अपमानजनक, उपेक्षा करनेवाली यह कविता पितृसत्तात्मकता के वर्चस्व को महिमामंडित तथा व्याख्यायित करती है और इस तरह यह कविता नागार्जुन की मानसिकता के पितृसत्तातम्क होने को पुष्ट करती है।
विचार में घर बना चुके वितंडा के बढ़ते हुए फैलाव पर ध्यान देने की जरूरत है। क्या कहते हैं, आप...
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