सोमवार, 11 अगस्त 2014

हाँ, यह सब तो चलता ही रहता है


किसी विषय पर कोई गंभीर बात शरू होने लगे या कोई जरूरी विचार बनने लगे तो उस पर से ध्यान हटाने के लिए कोई विवादास्पद बयान देकर लोगों की चिंता को दूसरी तरफ ठेल देना वर्चस्वशाली पक्ष का बहुत पुराना कौशल है। आज महगाई पर काबू पाने में विफलता, प्रतिरक्षा और रेलवे में एफडीआई, सामाजिक उत्पीड़कताओं, महिलाओं पर अत्याचार, सांप्रदायिक हिंसा की बढ़ोत्तरी, रोजगार के घटते अवसर, काले धन, विभिन्न स्तर पर बढ़ रही धाँधलेबाजी आदि की स्थितियाँ धीरे-धीरे नागरिक समाज में नये सिरे से चिंता का विषय बनती जा रही हैं। नये सिरे से इसलिए कि इन में से कोई भी स्थिति नई सरकार की उपज नहीं है, लेकिन इन स्थितियों से देश के लोगों को बाहर निकालने के वायदे पर बनी सरकार के फेल अथवा उदासीन बनते हुए दिखने पर नागरिक समाज के लोग उसी तरह से सोचते हुए नहीं रह सकते। यह सच है कि अभी नये प्रभुओं के क्रिया-कलापों को लेकर लोग पूरी तरह से निरुत्साह नहीं हुए हैं। लेकिन उत्साह में तेजी से हो रही गिरावट को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता है। अभी कुछ राज्यों में चुनाव होनेवाले हैं। ऐसे में, सत्ता के संरक्षकों के लिए यह जरूरी है कि लोगों का ध्यान बँटाने के लिए उनकी तरफ से कुछ कोशिश हो। 

कोशिश की जा रही है। अभी संघ की तरफ से बयान आया है कि अगर इंग्लैंड में रहने वाले अंग्रेज हैं, जर्मनी में रहने वाले जर्मन हैं और अमेरिका में रहने वाले अमेरिकी हैं तो फिर हिंदुस्तान में रहने वाले सभी लोग हिंदू क्यों नहीं हो सकते। भारत और हिंदुस्तान पर्याय नहीं है। हिंदुस्तान का क्षेत्र भारत का हिस्सा है, संपूर्ण भारत नहीं। इसी अर्थ में, ठीक ही, पश्चिम बंगाल में सभी भारतीयों को हिंदुस्तानी न कहा जाता है, न माना जाता है। जैसे जर्मनी में रहने वाले जर्मन हैं और अमेरिका में रहने वाले अमेरिकी हैं ठीक वैसे ही भारत के लोग भारतीय हैं। वे यह क्यों नहीं बताते कि जिन देशों का नाम उन्होंने लिया है वहाँ के लोगों को ईसाई नहीं कहा जाता है तो भारत के लोगों को हिंदू कहना उन्हें क्यों जरूरी लग रहा है? उन्होंने यह भी कहा बताया जा रहा है कि ‘सभी भारतीयों की सांस्कृतिक पहचान हिंदुत्व है और देश में रहने वाले इस महान संस्कृति के वंशज हैं।’ सही बात तो यह है कि ‘हिंदुत्व’ एक राजनीतिक विचारधारा है। राजनीतिक विचारधारा को परिभाषित करनेवाले किसी पद का संस्कृति के विशेषण के रूप में इस्तेमाल करना संस्कृति के राजनीतिकरण का ही प्रयास है। संस्कृति के राजनीतिक इस्तेमाल के और भी लक्षण हैं। उदाहरण के लिए उन्होंने कहा कि हिंदुत्व एक जीवन शैली है और किसी भी ईश्वर की उपासना करने वाला अथवा किसी की उपासना नहीं करने वाला भी हिंदू हो सकता है। उन्होंने यह कहने की भी उदारता नहीं दिखलाई कि हिंदुत्व विभिन्न जीवन शैलियों का समुच्चय है बल्कि, जोर देकर कहा कि हिंदुत्व ‘एक जीवन शैली’ है। इस बात पर गौर करें ▬▬ किसी भी ईश्वर की उपासना करने वाला अथवा किसी की उपासना नहीं करने वाला ▬▬ अब इससे बाहर कौन बचता है! यानी दुनिया का हर आदमी हिंदू है क्योंकि कोई भी आदमी या तो किसी भी ईश्वर की उपासना करनेवाला या नहीं करनेवाला ही हो सकता है; इसके बाहर तो कोई हो ही नहीं सकता! तो अब चिंता और चिंतन की सारी मुद्राएँ अन्य मुद्दों को छोड़कर इस पर केंद्रित हो जायें! 

एक दूसरा बयान यह आया कि लोकसभा चुनाव में किसी शख्स की वजह से नहीं, बल्कि जनता की वजह से एनडीए को जीत मिली है। एनडीए को जीत मिले या किसी और को इसका श्रेय तो जनता को ही जाता है, यही तो जनतंत्र का तकाजा है। लेकिन जनतंत्र के इस तकाजा का ध्यान तब आता है जब जीत के बाद फिर जीत के लिए लगने का समय आ जाता है। तजुर्बा यह कि इसे सत्ताधारी दल के भीतर चल रहे किसी श्रेय-द्वंद्व के रूप में लोग देखें और बहस करें। 

हद है कि भारत रत्न को लेकर भी गहमागहमी बनाई गई। अब यह बताया जा रहा है कि भारत सरकार ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस को सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न दिए जाने के किसी प्रस्ताव के विचाराधीन होने या उस पर विचार करने की खबरों का खंडन कर दिया है। नेता जी का मामला अतिसंवेदनशील है और इस पर जिस तरह की प्रतिक्रिया आई उसके बाद तो, यह होना ही था। 
लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। लोग चर्चा करने, विचार-विनिमय करने के लिए स्वतंत्र हैं। लोग बहस करें और करते रहे हैं। परेशानी बढ़ानेवाले मुद्दों पर कोई ठोस चर्चा न प्रारंभ हो जाये, इसके लिए पब्लिक डोमेन में इस तरह के मुद्दे उछाल दिये जाते हैं। विभिन्न चैनलों पर एंकरों विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं, प्रवक्ताओं और घोषित समर्थकों से बहस करते/करती हैं और हद यह कि उन्ही से उम्मीद करते/करती हैं कि वे अपने दल के राजनीतिक हित-अहित से निरपेक्ष होकर कोई बात करेंगे। जिनके मन में अपेक्षाकृत कोई राजनीतिक पूर्वग्रह नहीं है या फिर जो अपने पूर्वग्रह पर काबू रखकर राजनीतिक हित-अहित से निरपेक्ष होकर तथा देशहित-जनहित को ध्यान में रखकर बात कर सकते हैं, ऐसे लोगों को बुलाया ही बहुत कम अवसरों पर जाता है, बुलाया गया तो समय कम दिया जाता है, बाकी कसर प्रवक्ताओं के झोंझों से पूरी हो जाती है! जो देश और दुनिया चलाता है, वही अख़बार और चैनल चलाता है। हाँ, यह सब तो चलता ही रहता है, और हाँ ऐसे ही चलता है लोकतंत्र। 

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