उम्मीदों की उड़ान
साल 2015 दिल्ली विधान सभा के लिए होनेवाला चुनावी दंगल दिलचस्प दौर में पहुँच गया था। बड़े, राष्ट्रीय, राष्ट्रवादी दलों की हालत शिकस्त थी। उनके आत्म-विश्वास का लुट जाना तो साफ-साफ दिख रहा था। नागरिक मन में आकार पा रहे यथार्थ और स्वप्न का मुँह विज्ञापन से ढकने और उसकी निःशब्द आवाज को राजनीतिक भाषणों के कोलाहल में घुला दिये जाने की पुरजोर अश्लील कोशिश तेज थी। इस यथार्थ और स्वप्न को समझें तो, यथार्थ राजनीतिक जमात के द्वारा बार-बार के नागरिक छल से उत्पन्न जीवन स्थिति और स्वप्न इस जीवन से बाहर निकलने के लिए नागरिक जमात की पहल से पैदा जनाकांक्षा थी। जनाकांक्षा जनादेश में बदल रही थी और चुनावी जीत-हार का नतीजा जब प्रकट हुआ तब नागरिक मन की निःशब्द आवाज के स्तब्धकारी असर का पता चला। अपने फटे हुए अहं के साथ हाँफते हुए रणनीतिकार अपने अंतरंग में स्तब्ध, निःशब्द और संशय से घिर गये। प्रवक्ताओं के चेहरे पर उभर आई चिंता रेखाओं का बाँकपन और मुस्कान का कौशल कोई भी अर्थ पैदा करने में विफल हो रहा था। लहरों में इतनी भी ताकत नहीं बची कि ढंग से पछाड़ भी खा सके, बुक्का फाड़कर रो सके या शोक मनाये। शोक मनाने लायक भी शक्ति तो नहीं बची! एक बात कहना जरूरी है कि इस तरह का स्तब्धकारी असंतुलित बहुमत किसी सामंजस्यपूर्ण सामूहिकता से नहीं बल्कि उन्माद ग्रस्त सामूहिकता से निकलती है। अहं का विकल्प उन्माद नहीं हो सकता!
साल 2015 दिल्ली विधान सभा के लिए होनेवाला चुनावी दंगल दिलचस्प दौर में पहुँच गया था। बड़े, राष्ट्रीय, राष्ट्रवादी दलों की हालत शिकस्त थी। उनके आत्म-विश्वास का लुट जाना तो साफ-साफ दिख रहा था। नागरिक मन में आकार पा रहे यथार्थ और स्वप्न का मुँह विज्ञापन से ढकने और उसकी निःशब्द आवाज को राजनीतिक भाषणों के कोलाहल में घुला दिये जाने की पुरजोर अश्लील कोशिश तेज थी। इस यथार्थ और स्वप्न को समझें तो, यथार्थ राजनीतिक जमात के द्वारा बार-बार के नागरिक छल से उत्पन्न जीवन स्थिति और स्वप्न इस जीवन से बाहर निकलने के लिए नागरिक जमात की पहल से पैदा जनाकांक्षा थी। जनाकांक्षा जनादेश में बदल रही थी और चुनावी जीत-हार का नतीजा जब प्रकट हुआ तब नागरिक मन की निःशब्द आवाज के स्तब्धकारी असर का पता चला। अपने फटे हुए अहं के साथ हाँफते हुए रणनीतिकार अपने अंतरंग में स्तब्ध, निःशब्द और संशय से घिर गये। प्रवक्ताओं के चेहरे पर उभर आई चिंता रेखाओं का बाँकपन और मुस्कान का कौशल कोई भी अर्थ पैदा करने में विफल हो रहा था। लहरों में इतनी भी ताकत नहीं बची कि ढंग से पछाड़ भी खा सके, बुक्का फाड़कर रो सके या शोक मनाये। शोक मनाने लायक भी शक्ति तो नहीं बची! एक बात कहना जरूरी है कि इस तरह का स्तब्धकारी असंतुलित बहुमत किसी सामंजस्यपूर्ण सामूहिकता से नहीं बल्कि उन्माद ग्रस्त सामूहिकता से निकलती है। अहं का विकल्प उन्माद नहीं हो सकता!
स्तब्धकारी बहुमत हासिल करने पर आम आदमी पार्टी को बधाई। लेकिन यह भारतीय जनतंत्र और भारत राष्ट्र के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। अपनी इस बात का अर्थ जानता हूँ और यह भी जानता हूँ कि जो अकेले पड़ जाने के जोखिम से डरकर अपनी समझ को सार्वजनिक करने से रह जाता है, समाज की समझ को दुरुस्त करने में सहायक नहीं हो सकता। भारतीय जनतंत्र के लिए यह शुभ लक्षण नहीं है! क्यों? क्योंकि, जनतंत्र में विपक्ष की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण होती है। इस तरह का स्तब्धकारी बहुमत सत्ता के स्वर से भिन्न किसी सुझाव के स्वर को शक्तिहीन बना देता है। किसी भी सूरत में अपने सारे लोक लुभावन महत्त्वपूर्ण चुनावी वायदे को व्यवहार के स्तर पर पूरा कर पाना असंभव ही होता है। ऐसे में, अपने लोक लुभावन महत्त्वपूर्ण चुनावी वायदे को पार्टी बाद में "चुनावी जुमला" मानने और मनवाने के लिए बाध्य होने लगती है। स्तब्धकारी बहुमत में निहित सन्निपाती लक्षण बताता है कि गहरी निराशा से आहत हमारा नागरिक मन आशा की प्राणघाती छलांग लगाने की व्याकुलता से ग्रस्त हो रहा है। अति और अतिरेक कभी शुभ नहीं होता। दिल्ली भारत राज्य की ही नहीं, भारत राष्ट्र की भी राजधानी है। राज्य और राष्ट्र का अंतर साफ हो तो, यह मान लेने में संकोच न होगा कि राज्य जनहित से जितना मुँह मोड़ेगा राष्ट्र की जरूरत जन एकजुटता के लिए उतनी बढ़ती जायेगी, खासकर तब जब विभिन्न कारणों से वर्गबोध का सक्रिय हो पाना असंभव-सा ही रह गया हो। पहले से ही नगरवासी, ग्रामवासी की तुलना में, राज्य प्रदत्त अवसर का लाभ अधिक पाते/ उठाते हैं। दिल्ली यदि अपने रहिनहारों के लिए अधिक सुविधा सुनिश्चित करने की तरफ बढ़ती है तो जाहिरा तौर पर सभी प्रदेश इस ओर तेजी से बढ़ेंगे। नागरिकता के लाभों की अति-नगर-केंद्रिक उपलब्धता भारत राज्य और भारत राष्ट्र दोनों के लिए क्षतिकर है।
हों जश्न में शामिल शौक से, मगर यह न भूलें कि स्तब्धकारी बहुमत के असंतुलन में भारतीय जनतंत्र और भारत राष्ट्र के लिए शुभ संकेत निहित नहीं हैं। अराजकता अर्थात, राज्य विहीनता, राज्य के अतिचार से बाहर निकलने की भावुकता भर नहीं एक ठोस राजनीतिक विचार भी है। ऐसे में वर्त्तमान चुनौती यह है कि क्या राज्य विहीनता में राष्ट्र को एक रखने की किसी भी चिंता के लिए कोई जगह बची रहती है! क्या राज्य विहीनता में शक्ति-संपन्न घरानों के अंदर राज्य की तरह के आचरण की स्वयंभू प्रवृत्ति की समता विरोधी बाढ़ को रोकने की कोई क्षमता या इच्छा होती है! भ्रष्टाचार जनतंत्र और पूँजीवाद के अंतर्विरोध से पैदा होता है तो, क्या राज्य विहीनता जनतांत्रिक मूल्यों को बचाने के लिए जनतंत्र और पूँजीवाद के अंतर्विरोध के पार नागरिक जीवन को स्वच्छ जमीन के निर्मल आकाश तक ले जा सकती है! यदि इन सवालों के जवाब व्यावहारिक स्तर पर नकारात्मक मिलता है, जिसकी आशंकाओं का ब्यास बहुत बड़ा है, तो निश्चित ही यह स्तब्धकारी बहुमत निराशा की गहरी घाटी में आशा की प्राणघाती छलाँग साबित होगा।
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