गुरुवार, 21 अगस्त 2014

उलटी हवा

{जनसत्ता, समांतर 01 सितंबर 2014 में संपादित अंश प्रकाशित}

भारत बहुत बड़ा देश है। इसकी संस्कृति बहुत पुरानी है। भारत की औसत नागरिक बौद्धिकता इतिहास की अंतर्दृष्टियों से नहीं, पुराण कथाओं से प्रेरित, परिचालित होने की अभ्यासी है। मुश्किल यह कि इसकी संस्कृति तो पुरानी है, लेकिन इसकी संसदीय राजनीति नई है। सांस्कृतिक बहुलता और राजनीतिक एकता इसके अस्तित्व का मर्म है। संविधान सभा ने इस गूढ़ बात को समझा और संविधान में तदनुरूप प्रावधानों के लिए सम्मानजनक जगह बनाई। अब हमारे जनतांत्रिक शासकों का यह दायित्व है कि वे संवैधानिक दायित्वों की संवेदनशीलता को समझें और तदनुरूप अपने आचरण को अनुशासित एवं नियमित करें। यह बहुत ही चिंता की बात है कि खुद प्रधानमंत्री की उपस्थिति में संवैधानिक मार्यादा का उल्लंघन हो और प्रधानमंत्री इसे रोकने का कोई कारगर उपाय न करें या ऐसा हो जाने पर कोई अफसोस न जतायें। जनता और राजनीतिक दल के कार्यकर्त्ताओं को अपना विरोध दर्ज कराने का पूरा अधिकार है लेकिन अभी-अभी पूर्ण बहुमत से चुनकर आई नई-नवेली सरकार के मुखिया, अर्थात प्रधानमंत्री, को काला झंडा दिखाया जाये यह भी कोई शुभ लक्षण नहीं है। परिस्थिति चाहे जो भी हो। प्रधानमंत्री को काला झंडा दिखाने के मामले में गिरफ्तारी हो जाना और मुख्यमंत्री/यों की हूटिंग को हल्के से लिया जाना भी शुभ नहीं है। जिस तरह के वक्तव्य आ रहे हैं, उनमें बहुत ही खतरनाक संकेत छिपे हैं। आज के प्रधानमंत्री खुद लंबे समय तक मुख्यमंत्री रह चुके हैं और ऐसे मामले में क्षेत्रीय अस्मिता के सवाल को, अपेक्षाकृत कुछ अधिक बुलंद आवाज में उठाते रहने के राजनीतिक कौशल के इस्तेमाल के तरीकों से अनभिज्ञ नहीं हैं। वे ऐसे मामलों में मुख्यमंत्रियों और राज्य की संवेदनशीलता से भलीभाँति अवगत हैं। मुख्यमंत्री के रूप में प्रधानमंत्री की उपस्थिति में ऐसी किसी घटना पर किस तरह का रवैया वे खुद अपनाते इसका अनुमान बहुत कठिन नहीं है। इसलिए उन से उम्मीद की जानी चाहिए कि वे मामले की गंभीरता को भीतर से समझेंगे और इसकी क्षतिपूर्त्ति के लिए उचित कार्रवाई अवश्य करेंगे।

यह भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि यह स्थिति अचानक नहीं पैदा हुई है। पहले भी चिंता व्यक्त की गई है कि भारत संघ की आंतरिक संरचना में विघटनकारी बदलाव हो रहे हैं। भारत का संविधान एक विचार भी है और भावना भी। संविधान में निहित विचार और भावना के अनुसार स्वाभाविक और निरापद रूप से भारत संघ की आंतरिक संरचना संघात्मक है तो बाहरी संरचना एकात्मक है। भारत संघ की आंतरिक और बाहरी संरचना की यह स्वाभाविकता विचलित हो रही है। अब भारत संघ की आंतरिक संरचना एकात्मक और बाहरी संरचना संघात्मक प्रवृत्ति की ओर तेजी से बढ़ रही है। मुझे गहरी आशंका है कि यह इस तरह की संघाती प्रवृत्ति हमारी संघात्मकता को बिखराव में डालकर भारत राष्ट्र की स्वाभाविकता को नष्ट कर देगी। मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री के कार्यक्रम से अपने को दूर रखने की बात करें इससे अधिक संवैधानिक प्रावधानों का अनादर और क्या होगा! 

ऐसे में, एक सामान्य नागरिक की हैसियत से हमें सभी राजनीतिक दलों के प्रभावशाली नेतृत्व से उम्मीद करनी चाहिए कि वे संयमित आचरण का परिचय देंगे। पड़ोसी मुल्कों में तेजी से बदल रहे राजनीतिक घटना क्रम पर ध्यान देने से यह चिंता और बढ़ जाती है। दुनिया के अन्य इलाकों की राजनीतिक स्थिति भी कम भयावह नहीं है। ऐसे में इस पूरे इलाके में भी अगर इस तरह से राजनीतिक अस्थिरता बढ़ती जायेगी तो विकास के उन सपनों का, जनता से किये गये वायदों का क्या होगा? इसके पहले कि यह विपरीत हवा किसी विध्वंसक तूफान में बदले, संसदीय राजनीति के प्रभावशाली लोगों को इसके प्रभाव पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। संकेत अच्छे नहीं हैं, हाँ अच्छे संकेतों को इंतजार जरूर है। एक सामान्य नागरिक की हैसियत से इस घटना-क्रम पर नजर रखना और सजग-सतर्क रहना हमारा नागरिक कर्त्तव्य है। राज्यपालों के बाद, अब मुख्यमंत्रियों की बारी है ऐसा कहना अभी ठीक नहीं है लेकिन, याद  जरूर रखना होगा कि संघीय ढाँचे की अवहेलना करनेवाली ऐसी घटनाओं की आवृत्ति भारत राष्ट्र को एक भिन्न प्रकार के बिखराव की आशंकाओं के भँवर में डाल देगी।

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