अभी-अभी कुछ दिन पहले जब भारतीय जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई तो उसे सुनामी कहा गया। इस सुनामी के तरह-तरह के अर्थ निकाले गये, इसकी तरह-तरह से व्याख्याएँ की गई। उपमाओं और रूपकों में सोचनेवाले हम लोगों ने अच्छे दिन को समझा, सराहा, स्वीकार किया। अपने-अपने तरीके से चकित हुए, कई तरह की आशंकाएँ व्यक्त की। यह सब जनतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है और इसका सम्मान किया ही जाना चाहिए। सबने अपने-अपने ढंग से जनादेश की व्याख्या की। यही जनतंत्र की बड़ी खूबी है। संसदीय राजनीति में चुनावी नतीजों का निहितार्थ राजनीतिक दलों की सुविधा-असुविधा पर ही निर्भर नहीं करता है, लेकिन राजनीतिक दल इसके निहितार्थ को अपनी सुविधा की समझ से प्रकट करते हैं। अपनी जीत को बड़ा कर दिखाना और हार को छोटा कर दिखाना इनकी सुविधा की माँग होती है। चुनावी नतीजों के संकेत को राजनीति अपने ढंग से पढ़ती है, अपने ढंग से व्यक्त करती है। नागरिक समाज को इसे अपने तरीके से पढ़ना चाहिए और अपने ढंग से व्यक्त करना चाहिए। जानादेश का राजनीतिक पाठ ही नागरिक पाठ भी हो, जरूरी तो नहीं!
इतने कम दिन में ही यदि जनता का फैसला कुछ बदला-बदला-सा है तो इसके पीछे जनता के मन की पीड़ा की सक्रियता को समझना चाहिए। यह सही है कि इसे किसी बड़े बदलाव के संकेत के रूप में नहीं देखा जा सकता फिर भी इतना तो तय है कि जनता ने संकेत दे दिया है। दलीय गठबंधन और समीकरण की बात को महत्त्वपूर्ण मानते हुए भी इसके संकेत का नागरिक पाठ यही है कि जनता ने बरसों बाद यदि केंद्र की सत्ता में अखंड बहुमत अखंड जनमत का नतीजा है। इस अखंड जनमत को खंडित कर पढ़ने का प्रयास सत्ताधारी दल न करे। सहज राजनीतिक मन से स्वीकार करना चाहिए कि जनता को प्रतीक्षित और अपेक्षित नतीजा नहीं मिल रहा है, उम्मीद की दिशाएँ भी धुँधली होती जा रही है। यह ठीक है कि इतने कम दिन में सरकार के काम-काज का मुकम्मल लेखा-जोखा करना न तो उचित है न संभव, लेकिन दिशा और दृष्टि का संकेत तो मिल ही सकता है। मँहगाई पर न तो काबू पाया जा सका है, न काबू पाने की किसी ठोस कोशिश का कोई लक्षण दिख रहा है। बजट के विभिन्न प्रावधानों का असंतुलन भी सबके सामने है। भाषा से लेकर हर तरह के सामाजिक उपकरण और अलंकरण के व्यवहार के लक्षण कोई शुभ संकेत नहीं दे रहे हैं। मंत्रियों के गैर जिम्मेवार और कई मामलों में गैर-जरूरी बयानों से भी नागरिक मन परेशान है।
जनतंत्र में सत्ता का औद्धत्य, चाहे सत्ताधारी जमात की विचारधारा जो भी हो, नागरिक मन को बहुत परेशान करता है। धर्मनिरपेक्षता भारतीय संस्कृति का सार है और भारत के संविधान का मौलिक स्वभाव। संसदीय चुनाव में दलों की जीत-हार को धर्मनिरपेक्षता की जीत-हार बताना, राजनीतिक रूप से ध्रुवीकरण या अन्यकरण के लिए चाहे जितना भी मुफीद हो, नागरिक दृष्टि से यह भ्रामक है। भारतीय जीवन के ऐसे संवेदनशील प्रसंग को चुनावी नतीजों के निकष पर कसने की प्रवृत्ति से बाज आना चाहिए। बहैसियत नागरिक मुझे नहीं लगता कि भारतीय जनता पार्टी को मिले अखंड जनादेश में सांप्रदायिकता के पक्ष में कोई संदेश है और न यह लगता है कि अभी आये उपचुनाव के चुनावी नतीजों में जाति समीकरण का कोई अपवित्र असर है। क्योंकि नागरिक मन यह नहीं मानता कि सांप्रदायिकता की काट जातिगत समीकरण है। आज की राजनीति जितनी जल्दी पुरानी राजनीति की इस भ्रामक मुहाबरेबाजी से बाहर अपनी समझ विकसित करे उतना ही शुभ है। आज की राजनीति को जनता के रोजी-रोटी, सामाजिक सम्मान, संतुलन तथा न्याय, अधिकारिकता और उपलब्धता को सुनिश्चित करने के बारे में सोचना चाहिए। समावेशी और सकारात्मक दृष्टिकोण के अपनाव का महत्त्व समझा जाना चाहिए। आज की राजनीति से उम्मीद करनी चाहिए कि जनादेश का राजनीतिक मिजाज पढ़ते हुए समाज के नागरिक मन के मर्म को ध्यान में रखे।
इतने कम दिन में ही यदि जनता का फैसला कुछ बदला-बदला-सा है तो इसके पीछे जनता के मन की पीड़ा की सक्रियता को समझना चाहिए। यह सही है कि इसे किसी बड़े बदलाव के संकेत के रूप में नहीं देखा जा सकता फिर भी इतना तो तय है कि जनता ने संकेत दे दिया है। दलीय गठबंधन और समीकरण की बात को महत्त्वपूर्ण मानते हुए भी इसके संकेत का नागरिक पाठ यही है कि जनता ने बरसों बाद यदि केंद्र की सत्ता में अखंड बहुमत अखंड जनमत का नतीजा है। इस अखंड जनमत को खंडित कर पढ़ने का प्रयास सत्ताधारी दल न करे। सहज राजनीतिक मन से स्वीकार करना चाहिए कि जनता को प्रतीक्षित और अपेक्षित नतीजा नहीं मिल रहा है, उम्मीद की दिशाएँ भी धुँधली होती जा रही है। यह ठीक है कि इतने कम दिन में सरकार के काम-काज का मुकम्मल लेखा-जोखा करना न तो उचित है न संभव, लेकिन दिशा और दृष्टि का संकेत तो मिल ही सकता है। मँहगाई पर न तो काबू पाया जा सका है, न काबू पाने की किसी ठोस कोशिश का कोई लक्षण दिख रहा है। बजट के विभिन्न प्रावधानों का असंतुलन भी सबके सामने है। भाषा से लेकर हर तरह के सामाजिक उपकरण और अलंकरण के व्यवहार के लक्षण कोई शुभ संकेत नहीं दे रहे हैं। मंत्रियों के गैर जिम्मेवार और कई मामलों में गैर-जरूरी बयानों से भी नागरिक मन परेशान है।
जनतंत्र में सत्ता का औद्धत्य, चाहे सत्ताधारी जमात की विचारधारा जो भी हो, नागरिक मन को बहुत परेशान करता है। धर्मनिरपेक्षता भारतीय संस्कृति का सार है और भारत के संविधान का मौलिक स्वभाव। संसदीय चुनाव में दलों की जीत-हार को धर्मनिरपेक्षता की जीत-हार बताना, राजनीतिक रूप से ध्रुवीकरण या अन्यकरण के लिए चाहे जितना भी मुफीद हो, नागरिक दृष्टि से यह भ्रामक है। भारतीय जीवन के ऐसे संवेदनशील प्रसंग को चुनावी नतीजों के निकष पर कसने की प्रवृत्ति से बाज आना चाहिए। बहैसियत नागरिक मुझे नहीं लगता कि भारतीय जनता पार्टी को मिले अखंड जनादेश में सांप्रदायिकता के पक्ष में कोई संदेश है और न यह लगता है कि अभी आये उपचुनाव के चुनावी नतीजों में जाति समीकरण का कोई अपवित्र असर है। क्योंकि नागरिक मन यह नहीं मानता कि सांप्रदायिकता की काट जातिगत समीकरण है। आज की राजनीति जितनी जल्दी पुरानी राजनीति की इस भ्रामक मुहाबरेबाजी से बाहर अपनी समझ विकसित करे उतना ही शुभ है। आज की राजनीति को जनता के रोजी-रोटी, सामाजिक सम्मान, संतुलन तथा न्याय, अधिकारिकता और उपलब्धता को सुनिश्चित करने के बारे में सोचना चाहिए। समावेशी और सकारात्मक दृष्टिकोण के अपनाव का महत्त्व समझा जाना चाहिए। आज की राजनीति से उम्मीद करनी चाहिए कि जनादेश का राजनीतिक मिजाज पढ़ते हुए समाज के नागरिक मन के मर्म को ध्यान में रखे।
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