गुरुवार, 27 अगस्त 2015

सांप्रदायिक राजीनिति के मिजाज में आरक्षण का सवाल और बबाल

गुजरात में हार्दिक पटेल के नेतृत्व में पटेल समुदाय को आरक्षण का लाभ दिये जाने की माँग की हिंसक परिणति सामने है। इसके पहले भी गुर्जर और जाट इस तरह का आंदोलन करते रहे हैं। हिंसा और जबर्दस्ती भी कम-ओ-बेश इन सब का अंतर्निहित सच है। इन सब से मन बहुत ही व्यथित हो जाता है। यह लेख बहुत ही व्यथित मन से लिखा गया है। उम्मीद के आकाश में चिंता की लकीरों को नजर अंदाज किये बिना भी भरोसा यह है कि सोच, समझ, तर्क और विचार और असहमति को जीवन से पूरी तरह खेदेड़ नहीं दिया गया है।
बिहार में चुनाव का परिदृश्य है। इस परिदृश्य का क्या महान दृश्य है कि ‘हिंदु एकता के लिए समर्पित एकात्म-मानववाद के पैरोकार’ जाति के शौर्य से खुद को अलंकृत कर रहे हैं। मुहावरे के तौर पर कहा और माना जाता है कि ‘कमंडल की सांप्रदायिक राजनीति’ का मुकाबला करने के लिए ‘मंडल की जाति आधारित राजनीति’ को अपनाया गया। ‘कमंडल की सांप्रदायिक राजनीति’ का मुकाबला करने की बात सचमुच रही हो तो इसमें एक बुनियादी भूल थी। भूल यह कि  जाति आधारित राजनीति, सांप्रदायिक राजनीति के विरुद्ध दिखती हुई भी कभी उसका वास्तविक विकल्प नहीं रच सकती। नतीजा यह हुआ कि आज ‘कमंडल की राजनीति’ मंडल की राजनीति में समाहित होकर राजनीतिक धुंध, धुआँ, क्रोध, फरेब, तर्कहीनता, विचारहीनता उगल रही है और आत्म-विभाजन, विध्वंस, अंतर्ध्वंस की यह नकारात्मक स्थिति ऊपरी तौर पर हर तरह की विषमता की जननी पूँजूवादी सोच को अपने लिए मुफीद लग रही है। यहाँ से देखें तो जनतंत्र के बहुमतवाद को बहुसंख्यकवाद और फिर बहुसंख्यकवाद में बदलने और जनतंत्र के भीड़तंत्र में बदलने की प्रक्रिया भी साफ दिखेगी।
बावजूद इन सब के, यह स्वाभाविक है कि नकारात्मक भेदभाव से भरी व्यवस्था के बुरे असर को दूर करने के लिए जिन आधारों पर नकारात्मक भेदभाव होता है उन आधारों पर ही सकारात्मक भेदभाव का उपाय कर संतुलन हासिल करने का इंतजाम किया जाना चाहिए। भारतीय समाज व्यवस्था जाति के आधार पर बँटी है, इस बात से मुहँ चुराने का कोई मतलब नहीं। यह बात भी माननी होगी कि समतामूलक समाज ही संतुलित समाज होता है, जिस समाज में समता नहीं वह समाज कभी संतुलित नहीं रह सकता। समता के लिए अपने को सर्वाधिक सिद्धांतबद्ध राजनीतिक विचारधारा के पैरोकारों ने, अपने वर्ग-बोध पर जरूरत से ज्यादा जड़मतित्व के कारण, भारतीय समाज के जाति आधार को तो कभी ढंग से समझने की कोशिश ही नहीं की, इसके बुरे प्रभाव से मुक्ति के उपाय सोचने की तो बात ही क्या!
आजादी के आंदोलन के दौरान एक आधुनिक राजनीतिक राष्ट्र के रूप में भारत पुनर्गठित हो रहा था। आधुनिक राजनीतिक राष्ट्र के रूप में भारत पुनर्गठित होने की राजनीतिक प्रक्रिया में ही बाबा साहेब ने सामाजिक संतुलन के सवाल को पूरी बौद्धिक ताकत के साथ उठाया। आधुनिक राजनीतिक राष्ट्र के रूप में भारत पुनर्गठन के इतिहास में दिलचस्पी हो तो इसे सही परिप्रेक्ष्य में सही ढंग से समझा जा सकता है। बाबा साहेब के सवालों की वैधता और आधुनिक राजनीतिक राष्ट्र के रूप में राजनीतिक भारत की अंदरुनी शर्त्तों के पूरा करने के लिए नकारात्मक भेदभाव को दूर करने के लिए सकारात्मक भेदभाव का प्रावधान किया गया। माना गया कि नकारात्मक भेदभाव का बड़ा आधार जाति है इसलिए स्वाभाविक है कि सकारात्मक भेदभाव के प्रावधान का आधार जाति को बनाया गया। सकारात्मक भेदभाव के यही प्रावधान आरक्षण के रूप में परिचित और प्रचलित है। मूल रूप से यह माना जाना चाहिए कि आरक्षण के प्रावधान नकारात्मक भेद भाव को दूर करने के लिए थे पिछड़ापन दूर करने के लिए नहीं, क्योंकि सकारात्मक भेद भाव से पिछड़ापन के दूर होने की गुंजाइश बहुत कम, न के बराबर होती है। किसी पिछड़े राष्ट्र में पिछड़ापन उस राष्ट्र में रहनेवाले सभी लोगों का छोटा-बड़ा सच होता है। आगे चलकर राजनीतिक कारणों से, कह लें जनतंत्र में वोट संग्रह के अपने महत्त्व के राजनीतिक कारणों से, आरक्षण के प्रावधान को पिछड़ापन दूर करने का माध्यम बताया और माना जाने लगा। आरक्षण को पिछड़ापन दूर करने का माध्यम मान लेने से पिछड़ापन का आधार जाति को मानना इसी राजनीतिक बोध के अंतर्गत जरूरी हो गया। कह लें, जाति की वोटर संख्या के बड़े आकार के आकर्षण के कारण पिछड़ापन का आधार जाति को मानना जरूरी हो गया। यही वह बिंदु है जहाँ से आरक्षण का प्रावधान नकारात्मक भेदभाव को दूर कर सामाजिक संतुलन हासिल करने के उपाय से बदलकर राजनीतिक शक्तिसंयोजन के विशेषाधिकार का आधार बन गया। इसके दो भयानक परिणाम हैं; पहला यह कि जाति आधारित नकारात्मक भेदभाव को दूर करने की जरूरत से एक राष्ट्र के रूप में हमारा ध्यान भटक गया और दूसरा यह कि नकारात्मक भेदभाव को दूर करने का सकारात्मक उपाय अपने प्रभाव में नकारात्मक हो गया। यानी जिस बुराई को दूर करने के लिए आरक्षण का उपाय किया गया था, आरक्षण उसी को हवा देने लगा।
अब हार्दिक पटेल की लाइन दोनों करफ से आग लगाने पर आमादा है। क्या अद्भुत तर्क है कि या तो हमारे समुदाय को भी आरक्षण दो या फिर किसी समुदाय को मत दो! गुजरात में हार्दिक पटेल के आह्वान पर जुटी भीड़ के मिजाज और लिबास को मीडिया में देखने से लगता ही नहीं है कि यह वंचित या पिछड़े समुदाय का जमावड़ा है। यह विशुद्ध रूप से जाति के लिए राजनीतिक विशेषाधिकार को हासिल करने के लिए शक्तिसंयोजन का व्यायाम है। हालाँकि, राजनीतिक नफा-नुकसान के बाहर इस माँग को मानने का कोई औचित्य नहीं है, लेकिन राजनीतिक कारणों से इस व्यायाम का समर्थन करनेवाले प्रभावशाली लोगों की कोई  कमी नहीं है। इस व्यायाम की हिंसक गतिविधियों के कोलाहल में राजनीतिक प्रभुसत्ता के दुरुपयोग, अहंकार और आक्रामकता से पैदा हुए सारे सवाल तात्कालिक रूप से नैपथ्य में चले जायेंगे चाहे वे व्यापमं की विराटता से जुड़े हों, ललित गेट से जुड़े हों, कोलगेट से जुड़े हों, अंगुली पर गिने जाने लायक घरानों के पास अकल्पनीय बकाया की ना-वसूली से जुड़े हों।
हार्दिक पटेल की माँग का औचित्य नहीं है! तो क्या आरक्षण को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाना चाहिए? मेरा ख्याल है कि नहीं, आरक्षण को पूरी तरह समाप्त करने का वक्त अभी नहीं आया है। हाँ यह जरूर किया जाना चाहिए कि आरक्षण के प्रावधान को नकारात्मक भेद भाव को दूर करने के लिए सकारात्मक भेद भाव के उपाय तक सीमित किया जाना चाहिए, इसे जाति की वोटर संख्या के बड़े आकार के राजनीतिक आकर्षण में पिछड़ापन दूर करने का माध्यम नहीं बनाया जाना चाहिए। धर्म आधारित सांप्रदायिक राजीनिति के मिजाज में जाति आधारित आरक्षण का सवाल और बबाल अभी और क्या रुख अख्तियार ग्रहण करता है यह तो वक्त ही बतायेगा। फिल वक्त तो यह कि मन बहुत व्यथित है और गलत समझ लिये जाने के जोखिम पर भी यह कहना बहुत जरूरी है कि अब और नहीं!

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