मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

बाजारू मौत सिर चढ गई

हाय, सियासत खुदकुशी का इल्जाम तो मरहूम के सिर मढ़ गई
गोली न चली आलू खेत में सर्वेश्वर, बाजारू मौत सिर चढ गई

प्रतिभा की न कोई कमी, यह सभ्यता तो अन्य पाठ ही पढ़ गई
काजल का दोष नहीं कारनामे के नतीजन आँख से वह कढ़ गई

प्रिय कर्म रत मन बँधे नहीं, बिंधे यौवन की अहमियत बढ़ गई
सितार सजा सहज मगर कोई और सुरलिपि सप्तम पर चढ़ गई

इधर रीढ़ की हड्डी गलती गई जो उधर चेहरे की रौनक बढ़ गई
जज्वात की थी भी कद्र अब कहाँ जो बेवफाई की कीमत बढ़ गई

और उन हसरतों का क्या कहें, स्वाद के लोभ में जुबान कट गई
है क्या गजब मालिक तेरा निजाम, हाथ कटा तो पहुँच बढ़ गई

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