सोमवार, 6 अप्रैल 2015

पार्टी छोड़ना नहीं, पार्टीबाजी छोड़ना मुश्किल

मैं श्रेष्ठ, नहीं लिखता। मैं बस सिर्फ लिखता हूँ। अपने लिखे में से श्रेष्ठ, सुंदर, महत्त्वपूर्ण आदि, यदि हो तो, को चिह्नित करना मेरा काम नहीं है। मैं बस लिखता हूँ। लेकिन बस इतना ही नहीं कहना है। जो कहना है, उसे कहने के पहले एक लोकश्रुति याद दिलाता हूँ। जीवन में कोई घटना होती है, मन बदल जाता है। आदमी बदल जाता है। जीवन बदल जाता है। लेकिन हमारे संविधान की तरह मन और व्यवहार का बुनियादी ढाँचा नहीं बदलता है। हाँ तो, हुआ यों कि एक बार एक चोर साधु बनकर साधुओं की जमात में शामिल हो गया। शामिल तो हो गया लेकिन मन और व्यवहार का बुनियादी ढाँचा नहीं बदला। कुछ दिन के बाद, साधुओं ने पाया कि चमत्कार हो रहा है। चमत्कार यह कि किसी का कमंडल किसी के सिरहाने पाया जाने लगा है। कमंडल का स्थान परिवर्त्तन किसी चमत्कार से कम नहीं था। साधुओं की जमात ने इस पर विचार शुरू किया। इस रहस्य को कैसे खोला जाये, समझा जाये। सभी अपनी-अपनी तरकीब बता रहे थे। तभी एक साधू खड़ा होकर बोला ▬▬

▬▬ साधु समाज, कृपा कर मार्गदर्शन करे कि क्या मन और व्यवहार के बुनियादी ढाँचा का नहीं बदलना प्राकृतिक होने के कारण साधु समाज में स्वीकृत, मान्य और क्षम्य है या नहीं।

साधु समाज ने समवेत स्वर में उत्तर दिया ▬▬

▬▬ स्वीकृत, मान्य और क्षम्य है।

तभी उस साधु ने कहा मैं इस कमंडल-बदल का भेद खोलता हूँ। मैं साधु बनने के पहले चोरी किया करता था और चोरी करना मेरे मन और व्यवहार का बुनियादी ढाँचा बन गया। साधु बनने के बाद मैं ने चोरी नहीं की है। लेकिन मैं हेराफेरी करने से खुद को नहीं रोक पा रहा हूँ। साधु समाज अपनी व्यवस्था दे। दंड मुझे मान्य है।

अंत में साधु समाज का फैसला आया ▬▬ चोर भले चोरी करने से बाज आये, लेकिन हेराफेरी से बाज आना उसके लिए संभव नहीं होता है, यानी सिचुएशन बियँड कंट्रोल। साधु समाज ने हेराफेरी की अनदेखी का फैसला लिया। साधुओं के फैसला का सैद्धांतिक या नैतिक आधार जो भी हो, व्यावहारिक आधार पुख्ता था। मुझे कहना यह है कि किसी पार्टी को छोड़ना उतना मुश्किल नहीं है जितना उस पार्टी में रहकर सीखी हुई पार्टीबाजी को छोड़ना। मैं कुछ लोगों को जानता हूँ जिन्होंने पार्टी तो छोड़ दी लेकिन पार्टीबाजी से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। अंततः मैं ने भी पार्टीबाजी की अनदेखी करने का ही फैसला किया है; सैद्धांतिक या नैतिक हो, न हो व्यावहारिक यही है। दुःखी हूँ, अन्यथा न लें....। हाँ, मैं पार्टीबाजी के आघतों को झेलते हुए जो लिख सकूँगा, लिखूंगा। श्रेष्ठ की गारंटी नहीं दे सकता, हाँ भागीदारी की कोशिश कर सकता हूँ।   

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