रविवार, 5 अप्रैल 2015

कसूर कुछ भी नहीं

सच तो यह कि दीवानपन तेरे वजूद में, मेरा कसूर कुछ भी नहीं
जाने क्यों खफा-खफा-सी रहती है जान मेरा कसूर कुछ भी नहीं


लिपटकर मिलते लफ्जों से पलट गये मेरा तो कसूर कुछ भी नहीं
उछलता गिरता है शेअर बाजार ज्यादा, मेरा कसूर कुछ भी नहीं


माना हकीकत के सामने ख्वाब कमतर, मेरा कसूर कुछ भी नहीं
ख्वाब पर पहरा नहीं कोई तेरा सच, तो मेरा कसूर कुछ भी नहीं


कहने को मुनासिब बहुत पास नहीं मेरे, मेरा कसूर कुछ भी नहीं
बस एक लफ्ज भर ही नहीं जिया अगर, मेरा कसूर कुछ भी नहीं


तलाश फूल की मिल गई तेरी मुस्कान, मेरा कसूर कुछ भी नहीं
सूखा पलाश यदि तेरी नजर से खिला, मेरा कसूर कुछ भी नहीं

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