शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

कैसे जी सकता

अपनी खामोशियों में पिघलना अगर नहीं आता
जो बोलती भौहों को बिचकना अगर नहीं आता

हाँ मुड़ कर कोहराम को देखना अगर नहीं आता
जो सामने आनेवाले मंजर को परखना नहीं आता

अँधेरे में जो कलियों को चटकना अगर नहीं आता
रौशनी की आवाज को थरथराना अगर नहीं आता

वक्ती खुशियों में मन को अगर घबराना नहीं आता
ख्वाबों को अपने सिलसिले में सिमटना नहीं आता

मुहब्बत के आकाश में रंगों को बिखरना नहीं आता
लंबी उम्र में अगर कभी दो पल जी लेना नहीं आता

अगर जो कभी काँटा को फूल का सलाम नहीं आता
कैसे जी सकता कलम नहीं होती, कलाम नहीं आता

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