1980/82... के बीच का समय। मैं राँची में नया था। एम ए में दाखिला लिया था, हालाँकि अपनी परिस्थितियों के कारण एम ए की परीक्षा में शामिल नहीं हो पाया कभी। खैर वह दूसरी बात है। उन दिनों फादर कॉमिल बुल्के मनरेसा हाउस में रहते थे। वहाँ हिंदी की तमाम किताबें आती थी और पुस्तकालय के कायदे से सजा कर रखी जाती थी। छात्र बेरोक-टोक उन से मिलने आते थे। खुद चुनकर किताबें ले जाने और फिर वहीं वापस रख जाने का रिवाज था। ऐसे ही, एक दिन मैं ने आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की प्रसिद्ध पुस्तक 'कबीर' चुनी, हालाँकि मैं पहले उससे गुजर चुका था। फादर ने मेरे हाथ में वह पुस्तक देखी तो उन्होंने पूछा कि क्या मैं पहले इस किताब को पढ़ चुका हूँ या पहली बार पढ़ूँगा। वे जन्म से विदेशी और उम्र से वृद्ध थे, थोड़ा नकियाकर बोलते थे और ऊँचा सुनते थे, हियरिंग एड के सहारे। गोल शीशे का चश्मा पहनते थे जिसकी डोरी झूलती रहती थी। बाकी जैसा फादर लोग होते हैं। मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया कि हाँ मैं ने 'कबीर' पढ़ी है। उन्हें कहा कि बहुत अच्छी किताब है। रामकथा के इतने महत्त्वपूर्ण अनुसंधाता के सामने मुझे जितना विनीत होना चाहिए था, उतना मैं हो नहीं सका। मैंने छूटते ही कहा कि यह पुस्तक एकांगी है। फादर चौंके। थोड़ा कड़ककर उन्होंने कहा कि वह (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी) मेरा मित्र था। कुछ दिन पहले, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का निधन हुआ था लेकिन फादर तब भी बहुत दुखी थे। मैं कह तो गया था कि पुस्तक एकांगी है, लेकिन फादर के दुख के सामने स्तब्ध था। फादर ने सामान्य होते हुए कहा कि वह चला गया और अब मुझे बुला रहा है। अब मैं ने छूटते ही कहाकि फादर, हिंदी का क्या होगा! मेरी हिंदी चिंता पर वे अपनी लंबी सफेद दाढ़ी के बीच से थोड़ा-सा मुस्कुराये और फिर खड़ा हो गये और खड़े होकर मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए गंभीरता से कहा ▬▬ हिंदी का! तुम लोग हो न! कितना भरोसा था
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