गुरुवार, 6 नवंबर 2014

हूँ तो सही, पर किस काम का!


1980/82... के बीच का समय। मैं राँची में नया था। एम ए में दाखिला लिया था, हालाँकि अपनी परिस्थितियों के कारण एम ए की परीक्षा में शामिल नहीं हो पाया कभी। खैर वह दूसरी बात है। उन दिनों फादर कॉमिल बुल्के मनरेसा हाउस में रहते थे। वहाँ हिंदी की तमाम किताबें आती थी और पुस्तकालय के कायदे से सजा कर रखी जाती थी। छात्र बेरोक-टोक उन से मिलने आते थे। खुद चुनकर किताबें ले जाने और फिर वहीं वापस रख जाने का रिवाज था। ऐसे ही, एक दिन मैं ने आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की प्रसिद्ध पुस्तक 'कबीर' चुनी, हालाँकि मैं पहले उससे गुजर चुका था। फादर ने मेरे हाथ में वह पुस्तक देखी तो उन्होंने पूछा कि क्या मैं पहले इस किताब को पढ़ चुका हूँ या पहली बार पढ़ूँगा। वे जन्म से विदेशी और उम्र से वृद्ध थे, थोड़ा नकियाकर बोलते थे और ऊँचा सुनते थे, हियरिंग एड के सहारे। गोल शीशे का चश्मा पहनते थे जिसकी डोरी झूलती रहती थी। बाकी जैसा फादर लोग होते हैं। मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया कि हाँ मैं ने 'कबीर' पढ़ी है। उन्हें कहा कि बहुत अच्छी किताब है। रामकथा के इतने महत्त्वपूर्ण अनुसंधाता के सामने मुझे जितना विनीत होना चाहिए था, उतना मैं हो नहीं सका। मैंने छूटते ही कहा कि यह पुस्तक एकांगी है। फादर चौंके। थोड़ा कड़ककर उन्होंने कहा कि वह (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी) मेरा मित्र था। कुछ दिन पहले, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का निधन हुआ था लेकिन फादर तब भी बहुत दुखी थे। मैं कह तो गया था कि पुस्तक एकांगी है, लेकिन फादर के दुख के सामने स्तब्ध था। फादर ने सामान्य होते हुए कहा कि वह चला गया और अब मुझे बुला रहा है। अब मैं ने छूटते ही कहाकि फादर, हिंदी का क्या होगा! मेरी हिंदी चिंता पर वे अपनी लंबी सफेद दाढ़ी के बीच से थोड़ा-सा मुस्कुराये और फिर खड़ा हो गये और खड़े होकर मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए गंभीरता से कहा ▬▬ हिंदी का! तुम लोग हो न! कितना भरोसा था

Gulab Singh, Shiv Shambhu Sharma, Javed Usmani और 37 अन्य को यह पसंद है.


Vivekanand Sharma कोलख्यान साहब! "हिन्दी का! तुम लोग हो न!कितना भरोसा था...! हूँ तो सही,पर किस काम का !"

हूँ तो सही ,पर किस काम का ! यही किस काम का !
स्वीकारोक्ति मर्म को छूता है।
वरना अब तो बिना काम वाले भी तथाकथितों में शामिल होकर ,अपनी ही पीठ थपथपाने वालों की काफ़ी लम्बी पंक्ति मिल जाती है ।
कल 10:57 पूर्वाह्न बजे · पसंद


Vijay Pushpam Pathak प्रफुल्ल जिस विश्वास के साथ फ़ादर कामिल बुल्के ने ये बात आपसे कही ,तो कुछ चिंगारी तुममे देख क्र कही होगी ।हिंदी साहित्य तुम्हारा कृतग्य है ।
23 घंटे · पसंद


Mukesh Nema आप हैं !
और आप यहाँ हमारे मित्र हैं यह हमारा सौभाग्य है ,आप के कृतित्व का मूल्याँकन समय करेगा आप निश्चित रहें
23 घंटे · पसंद · 1


प्रफुल्ल कोलख्यान Mukesh Nema सर आप जैसे दोस्तों का ही संबल है.. । बस कोशिश है कि सम्हल कर चलता रहूँ... बहुत पिच्छल है.. राह जिंदगी की.. और चलना कठिन अगर आप जैसे दोस्तों का सहारा न हो तो लगभग असंभव गिरने से खुद को बचा पाना। शुक्रिया कहकर स्नेह का हक अदा नहीं कर सकता.. मगर फिर शुक्रिया ही कहता हूँ। कभी कोई त्रुटि दिखे तो सम्हलने का हौसला दें यही आप सरीखे दोस्तों से गुजारिश है..
22 घंटे · पसंद · 2


Mukesh Nema आप ज़्यादती कर रहे है अब
मुझे तो आप से सदैव मार्गदर्शन की ही अपेक्षा रही है ,और सदैव रहेगी ,आपका संतुलित लेखन पथप्रदर्शक रहा है हमारा ,और परमपिता से प्रार्थना है कि आप हमेशा हम लोगों के साथ बने रहें ,
सादर मंगलकामनाये
22 घंटे · नापसंद · 1


Upadhyaya Pratibha मतलब आपके एक वाक्य से ही उन्होंने सही पहचान लिया .
21 घंटे · नापसंद · 1


Binay Kumar Sharma Marmasparshi sansmaran !
21 घंटे · पसंद


Vinay Krishna 1080 me mai Ranchi ke SBI ke hatia branch me karyarat tha, bank me aayojit TULASI-JAYANTI me unaka padarpan hota tha.unaki ek baat mujhe abhitak yaad hai--Mohe nachawat TULSI-GOSAI.
20 घंटे · पसंद


Dileep Mridul Aise sansmaran prerana dete hai, kuchh behatar karane ki,
20 घंटे · नापसंद · 1


Suresh Upadhyay प्रकाशोत्सव पर बधाई व शुभकामानाए
20 घंटे · पसंद


संजय कुमार मिश्र हिन्‍दी एवं हिन्‍दी समाज के लिए आप जितना कुछ कर रहे हैं उसके लिए वह हमेशा आपका ऋणी रहेगा.....
19 घंटे · पसंद


Hitendra Patel जितना कर सकते हैं उससे कम कर रहे हैं।
15 घंटे · नापसंद · 2

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