किताब और पाठक का संबंध बहुत संवेदनशील होता है। मेरे कई मित्र हैं, अंतरंग हैं, जिन्होंने मेरा कभी एक अक्षर नहीं पढ़ा। न तो हर पाठक मित्र हो सकता है और न हर मित्र पाठक। परिवार, वृहत्तर परिवार के सदस्य भी मेरे पाठक नहीं हैं। बुनियादी सवाल है कि मैं क्यों लिखता हूँ! हर बार इसका एक ही उत्तर नहीं मिलता है। हाँ हर बार के उत्तर में एक बात किसी-न-किसी रूप में शामिल रहती है कि अपनी सामाजिकता के निर्वाह का मेरे पास सब से अधिक कारगर और आनंददायक तरीका यही है। यहाँ तक बात सीधी सरल है। लेकिन लिखा हुआ किताब की शक्ल में समाज तक पहुँचता है। अब किताब कैसे छपे और पाठक (समाज) तक कैसे पहुँचे, यह उद्यम अपने बूते का नहीं है। मेरा अनुभव है पाठ तो लेखक का होता है लेकिन किताब प्रकाशक की होती है। याद तो हमेशा करता हूँ, अभी कल ही खास संदर्भ में नागार्जुन को याद कर रहा था। नागार्जुन ने शुरुआती दौर में एक बार सौराठ सभा (सौराठ मिथिलांचल का एक गाँव है, यहाँ लगन के समय मैथिल ब्राह्मणों की जमायत होती थी शादी-व्याह के लिए वर की भी खोजबीन हुआ करती थी। बाद में यह जमायत मुख्यतः वर मेला बनकर रह जाने की तरफ बढ़ गया और इसी रूप में अब बचा हुआ है।) के दौरान पाँव में घुँघरू बाँध कर अपनी किताब सार्वजनिक रूप से बेच रहे थे, सिर्फ अपने मित्रों के बीच नहीं बेच रहे थे। यह किताब आकार में हनुमान चालीसा की तरह की थी और उसे उन्होंने खुद छपवाया था। लेखक-संपादक जब अपनी किताब/ पत्रिका खुद छापकर पाठक की तलाश में संभावित खरीददार से संपर्क करता है तो वह और बात होती है। किसी प्रकाशन संस्थान से प्रकाशित अपनी किताब को बेचता है या बेचने के लिए खरीददार से संपर्क करता है तो यह और बात होती है। उसका यह काम उस किताब के लेखक के काम जैसा कम और उस प्रकाशन संस्थान के कर्मचारी के काम जैसा अधिक हो जाता है। लेखक यह भूल जाता है कि उसका प्रकाशन संस्थान उसे लेखक से बेगार में बदल रहा है। आज प्रकाशक हिंदी साहित्य की किताब के प्रकाशन का निर्णय पांडुलिपि की गुणवत्ता के आधार पर नहीं लेखक की विपणन क्षमता के आधार पर केंद्रित होकर करता है। समझदार लेखक प्रकाशक को अपनी किताब के खरीदे जाने की संभावनाओं के प्रति आश्वस्त करता है, अपने संपर्कों के प्रति आश्वस्त करता है। जो लेखक यह भरोसा (कई बार धोखा) नहीं दिला पाता है, प्रकाशक उससे दूर ही रहता है। नतीजा जिनका उच्च पदस्थ, अर्थात खरीदी में निर्णायक अधिकारियों से संपर्क नहीं है उनकी किताब मुश्किल से छपती है, या नहीं छपती है। इस संस्कृति-उद्योग और संस्कृति-बाजार में लेखक बहुत निरीह है। आप चाहें तो इस पोस्ट को किसी तात्कालिक संदर्भ की संकीर्णता से जोड़कर देख सकते हैं, चाहें तो दीर्घकालिक संदर्भ की व्यापकता से जोड़कर देख सकते हैं। गुजारिश सिर्फ यह कि यह आरोप का नहीं विश्लेषण का मुद्दा है।
पुनश्चः, जीवन के अन्य प्रसंगों के साथ शिक्षा उद्योग का हिस्सा बनी। अब, हिंदी में भी साहित्य संस्कृति उद्योग का हिस्सा बनता जा रहा है। जाहिर है कि हिंदी साहित्य अब, उद्योग के अनुशासन से परिचालित हो रहा है। उद्योग बिना उत्पादन के टिक नहीं सकता। उत्पाद को प्रचार चाहिए, बाजार चाहिए, खरीददार चाहिए। हम किसी जूता कंपनी के मालिक या इंजीनीयर को महान नहीं मानते थे अब भी महान तो नहीं मानते, उनका महत्त्व मानते हैं। जिस दिन उत्पादन बंद महत्त्व समाप्त। किताबों का दनादन छपना, संस्थानों से पुरस्कृत होना तो महत्त्व का भी हिस्सा नहीं है, बस मजा का हिस्सा है। अब तो आनंद और मजा का अंतर भी हमें नहीं मालूम!!
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