शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2014

कुछ बिखरी-बिखरी यादें : कुछ सफेद-स्याह ख्याल

आँख खुली आपातकाल की घोषणा के झटके से। पिता सरकारी कोलियरी में काम करते थे और उस समय हम कथारा में थे। कथारा झारखंड के बोकारो (तब गिरिडीह) जिला का हिस्सा है। पिता इंदिरा गाँधी के प्रशंसक नहीं थे, मैं भी नहीं था। घर में आने-जानेवाले लोगों में से भी अधिकतर इंदिरा गाँधी के प्रशंसक नहीं थे। जाहिर है घर में बहस का गरमागरम माहौल रहता था। आपातकाल की घोषणा के साथ ही अचानक सब थमक गया। एक अद्भुत खामोशी। पिता का इतना खामोश और डरा-डरा चेहरा मैं ने इसके पहले नहीं देखा था। घर में लोगों के मुँह खोलते ही पिता तनाव में आ जाते थे। दाल में नमक के कम या अधिक होने की बात भी इस तरह कही जाती थी कि कोई और सुन न ले। बाहर का वातावरण भी वैसा ही था। मेरी समझ में कुछ आ रहा था, साथ ही यह भी लग रहा था बहुत कुछ समझ में नहीं आ रहा है। फिर लोगों की गिरफ्तारी और अफवाहों का दौर शुरू हुआ। इसी संशय, डर और खामोशी के वातावरण में आँख खुली। मैं प्रशंसक नहीं था लेकिन अब धीरे-धीरे विरोधी में बदल रहा था। माहौल ढीला पड़ा तो आपातकाल और इंदिरा गाँधी के विरोधियों के संपर्क में आता गया। वह कहानी फिर कभी। मूल बात यह है कि ऑपरेशन ब्लू-स्टार के पहले और बाद की परिस्थितियों ने और बड़ा झटका दिया ▬▬ प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या और उसके बाद सिक्खों पर किये गये जानलेवा हमलों से मन दहल गया। प्रश्न आज भी परेशान करता है, ऑपरेशन ब्लू-स्टार की परिस्थितियों के पैदा होने के पहले और बाद की परिस्थितियों के लिए कौन या कौन-कौन जिम्मेवार हो सकता है! कुछ काल्पनिक-से प्रश्न भी उठते रहते हैं मसलन ऑपरेशन ब्लू-स्टार की परिस्थितियाँ पैदा न हुई होती तो क्या होता! या जब ऑपरेशन ब्लू-स्टार की परिस्थितियों के पैदा होने के बाद भी वह ऑपरेशन न हुआ होता तो क्या होता! इंदिरा गाँधी की हत्या न हुई होती तो राजनीति की दिशा क्या होती? इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद का कोहराम न मचा होता तो क्या होता? और फिर राजीव गाँधी के राजनीति में आने प्रधानमंत्री बनने, बोफोर्स का मामला उठने, उनके सत्ता से बाहर होने और अंततः राजनीतिक हत्या से बच नहीं पाने से बने माहौल को कैसे समझा जाये! आज की ही तारीख में इंदिरा गाँधी की हत्या हुई थी और भोपाल गैस त्रासदी के लिए जवाबदेह व्यक्ति का भी देहांत आज की ही तारीख में हुआ! जीवन और उसकी तरंगों को समझना कितना कठिन है। मन भारी है। फिर कभी।




Aparna Sah, Taranand Viyogi, राकेश सिंह और 2 अन्य को यह पसंद है.

Satish Jayaswal प्रफुल्ल जी।
गंभीर रूप से उलझे हुए प्रश्नों को इतनी संतुलित तार्किकता के साथ रखा जाना आज के समय में कम ही देखने मिलता है। अपेक्षा की जानी चाहिए कि इसे वैसी ही गंभीरता के साथ ग्रहण भी किया जाए।

राकेश सिंह बेहतरीन संकलन ।

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