मंगलवार, 2 सितंबर 2014

अहिंसा और वैचारिक विसंगतियाँ

यह भारत के लिए गौरव की बात है कि राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के जन्मदिन 02 अक्तूबर को संयुक्त राष्ट्र की तरफ से विश्व अहिंसा दिवस के रूप में मान्यता दी गई है। विश्व शांति और अहिंसा की बात करनेवाले एक से एक दार्शनिक, कवि, साधू, महात्मा, धर्मात्मा हुए हैं। फिर महात्मा गाँधी में आखिर ऐसी क्या बात है जिस से 02 को विश्व अहिंसा दिवस के रूप में मनाने का औचित्य पुष्ट होता है। 'अहिंसा की नीति के जरिए विश्व भर में शांति के संदेश को बढ़ावा देने के महात्मा गांधी के योगदान को सराहने के लिए इस दिन को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाने का फ़ैसला किया गया था।' इस योगदान को समझना जरूरी है। महात्मा गाँधी की खासियत यह थी कि उनका अहिंसा दर्शन अपने व्यवहार में आम आदमी की जीवनचर्या से जुड़कर जीवन आदर्श बन जाने की तरफ बढ़ता है। यह पूरी सभ्यता हिंसा पर टिकी है। ऐसा माना जाता है कि मनुष्य प्राकृतिक रूप से हिंसक प्राणी है। सांस्कृतिक रूप से उसे अहिंसा की तरफ बढ़ना है। संस्कृति के निर्माण में राजनीति की बड़ी भूमिका होती है। क्योंकि जीवन की भौतिक जरूरतों को पूरा करने की व्यवस्था राजनीति का दायित्व है। भौतिक जरूरत को पूरा किये बिना कोई संस्कृति बन नहीं सकती। महात्मा गाँधी के पहले और उनके अलावे जितने भी दार्शनिक, कवि, साधू, महात्मा, धर्मात्मा हुए हैं लगभग सभी विचार और आकांक्षा के आध्यात्मिक सरीखे क्षेत्र में सक्रिय रहे हैं। क्योंकि वह राज्य और धर्म की परस्पराश्रयिता के सक्रिय संबंध का समय था।

महात्मा गाँधी जब सत्य अहिंसा की बात के साथ राजनीतिक पटल पर प्रकट होते हैं उस समय दुनिया की सभ्यता चारित्रिक रूप से बदल रही थी। पहले औद्योगिक क्रांति के बाद विश्व नये रूप में उभर रहा था। उत्पादन के साधन में बदलाव आने के साथ विश्व की भौतिक जरूरत बदल और बढ़ रही थी। पहले राज्य और धर्म का परस्पराश्रयी संबंध था। अब यह परस्पराश्रयिता बदल रही थी। औद्योगिक क्रांति के साथ, राष्ट्रवाद के मार्फत राज्य और पूँजी के बीच 'पवित्र' परस्पराश्रयिता का संबंध विकसित हो रहा था। व्यापारिक प्रतिस्पर्द्धा के अंदर विश्व टकराव के बीज विकसित हो रहे थे। राज्यों की सामरिक क्षमता और युद्ध के प्रभाव की व्यापकता में भारी वृद्धि हो रही थी। अब यह नहीं हो सकता था कि एक तरफ मैदान में किसान हल चला रहे हों और दूसरी तरफ सैनिक युद्ध कर रहे हों। धर्मनिरपेक्षता नये सिरे से प्रासंगिक हो रही थी, क्योंकि धर्म को राज्य से विलग होकर पूँजी के लिए स्थान छोड़ना था। ऐसे में महात्मा गाँधी ने सत्य अहिंसा की बात को धर्म क्षेत्र से थोड़ा बाहर निकलकर लेकिन धार्मिक आवरण का इस्तेमाल करते हुए राजनीति के क्षेत्र में लागू किया। चूँकि औपनिवेशिक सत्ता से मुक्ति की राजनीति में गाँधी सत्य-अहिंसा का विनियोग कर रहे थे इसलिए विश्व राजनीति के संदर्भ तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के संतुलन को बनाये रखने में इस का महत्त्व पठनीय है।


2007 तक आते-आते उदारीकरण-भूमंडलीकरण-निजीकरण में निहित आकांक्षाओं के कारण विश्व में नये किस्म के टकराव की ओर बढ़ रहा था। यहाँ गाँधी के राजनीतिक सिद्धांत की व्यावहारिकता में नई चमक को विश्व समुदाय ने देखा-परखा और उनके जन्मदिन 02 अक्तूबर को विश्व अहिंसा दिवस के रूप में मानने के औचित्य को समझा। भारत को इस बात पर गर्व करना चाहिए, लेकिन गर्व करना ही काफी नहीं है, बल्कि इसे समझना चाहिए। इसे समझते हुए मुगालते में पड़ने से भी बचना चाहिए। स्वीकार करना चाहिए कि भारत में 'वसुधैव कुटुंबकम' जैसी कोई भावना कभी उस तरह से जीवंत और सक्रिय नहीं रही है। आंतरिक कोलाहल, अपनों को पराया बनाये जाने, सामाजिक भेद-भाव, आर्थिक शोषण के बढ़ते दबाव के इस दौर में इस बात में उक्ति मनोहरता चाहे जितनी हो इसका वास्तविक मूल्य नकारात्मक ही है। इस बात को ध्यान से सुनना चाहिए जो प्रधानमंत्री ने कहा। कहा कि अहिंसा के लिए भारत की पूर्ण प्रतिबद्धता है और यह 'भारतीय समाज के डीएनए में रची बसी है तथा यह किसी भी अंतरराष्ट्रीय संधि से बहुत उपर है।' उनका संदर्भ भारत के परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने से इनकार की ओर था। इस बात के अन्य आयाम हैं, लेकिन खुद जापान की जमीन पर खड़े होकर ऐसा कहने का मतलब कुछ और भी है। अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने से भारत के इनकार के कारणों तथा इस अंतर्राष्ट्रीय संधि प्रस्ताव की वास्तविक खामियों का उल्लेख करते हुए उन खामियों को दूर किये जाने के अंतर्राष्ट्रीय प्रयास की बात करना अधिक उपयुक्त होता। भारतीय समाज के डीएनए की बात का मर्म समझना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है! भारत का डीएनए रिपोर्ट बताने के बदले दुनिया की वास्तविक स्थिति पर बात करना अधिक उपयुक्त है। शांति में सभी फरीकों की भौतिक स्थिति की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती 'किसी एक का डीएनए' ही काफी नहीं होता है। एक और लगातार युयुत्स मुद्रा में रहने, लगातार युद्ध की भाषा बोलने और दूसरी विश्व शांति और अहिंसा के अपने डीएनए में होने की बात में अंतर्निहित आत्म-विरोध को राजनीतिक संगत और आर्थिक सम के व्यवहार पर लाना ही होगा।

05 सितंबर को भारत शिक्षक दिवस के रूप में मनाता है। भारत रत्न से सम्मानित सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक आदर्श शिक्षक तो थे ही भारतीय और पाश्चात्य दर्शन में निहित वैश्विक आयामों के सामान्य पक्ष को अधिक दार्शनिक दक्षता के साथ दुनिया के सामने लानेवाले महान व्यक्ति भी थे। आधुनिक काल के जिन थोड़े-से भारतीयों का विश्व बौद्धिक जगत में सम्मान था उनमें राधाकृष्णन का नाम बड़े सम्मान से शामिल है। वे भारत के उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति भी रहे। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में काम किया लेकिन उन्होंने अपने को शिक्षक के रूप में ही पहचाना। दुनिया के विभिन्न देशों में विभिन्न लोगों के नाम पर शिक्षक दिवस मनाया जाता है। वे अपना जन्म दिन अपने नाम से न मनाकर शिक्षक दिवस के रूप में मनाना चाहते थे। इस दिन को शिक्षक बिरादरी को सम्मानित किये जाने के उद्देश्य से जोड़ना भी उनकी इच्छा थी। उनकी इस पवित्र इच्छा का सम्मान करते हुए पूरा देश उनकी अंगरेजी जन्म तारीख 5 सितम्बर को प्रति वर्ष शिक्षक दिवस के नाम से ही मनाता है। इस संदर्भ में एक बात की तरफ भी ध्यान देना जरूरी है। राधाकृष्णन शिक्षा के स्वरूप को लेकर जो सोचते थे वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण था। शिक्षक दिवस के रूप में राधाकृष्णन का जन्म दिन मनाते हुए, हमें देश भर के शिक्षकों का शासकीय और सामाजिक सम्मान तो करना ही चाहिए लेकिन एक शिक्षक के रूप में जो वे सोचते थे उसका भी सम्मान किया जाना जरूरी है। यह सच है कि वे भारत के पहले शिक्षा मंत्री के रूप में भारत सरकार की शिक्षानीति का प्रारंभिक ढाँचा तैयार कर नई शिक्षा प्रणाली को अधिक गतिमय बना सकते थे, यह नहीं हुआ।
वे भारत के पहले शिक्षा मंत्री नहीं बने, लेकिन उनके विचारों का महत्त्व इससे कम नहीं हो जाता है। शिक्षा आयोग के रूप में उनके सुझावों पर ही 1953 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग बना। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का भारतीय शिक्षा में कितना योगदान है, यह रुचि रखनेवाले सभी जानते हैं। आज कहीं-कहीं से भिन्न तरह की आवाज उठ रही है। एक नागरिक डर हमारे अंदर सक्रिय हो रहा है। 05 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में न मनाया जाकर गुरु दिवस के रूप में मनाये जाने की आवाज। गुरु और शिक्षक में बहुत अंतर है, वैसे ही जैसे शिक्षा और विद्या में बहुत अंतर है। डर यह कि शिक्षक दिवस को गुरु दिवस में बदल दिये जाने के बाद बारी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की आयेगी। योजना आयोग की हालत देख ही रहे हैं।

जिस तरह से भारत की डीएनए रिपोर्ट को बाँचा जा रहा है, उससे डर तो लगता ही है। इसी तरह अचनाक भारत सरकार 02 अक्तूबर को विश्व अहिंसा दिवस के रूप में बनाये जाने के स्वरूप में भी अंदर-अंदर बदलाव करने की योजना बना सकती है। जाहिर है, पूँजी और राज्य के अंतर्ध्वंस से बचाव का जो भी रास्ता बन सकता है, उसमें एक रास्ता गाँधी व्यवहार का भी है। गाँधी व्यवहार के देश भारत में नई सरकार आने के बाद सत्ता समूह में नये मिजाज का प्रभावशाली बनना कोई अचरज की बात नहीं है। इस समय कई जारी प्रसंगों की अंतर्वस्तु में बदलाव लाने का शासकीय प्रभाव जोर पकड़ता दिख रहा है। नया मिजाज जैसा भी हो यह याद रखना जरूरी है कि गाँधी सत्य और अहिंसा की व्यवहार्यता के लिए जिस जीवन-शैली की बात करते थे हम उससे कहीं बहुत दूर जा खड़े हुए हैं। रूपक में कहने की इजाजत हो तो गाँधी रेल के विस्तार के विरोधी थे और आज हमारी कोशिश बूलेट रेल चलाने की है। यह स्वाभाविक आकांक्षा है। अहिंसा को तरह-तरह से परिभाषित कर समझने की कोशिश की गई है। मन, कर्म और वचन के संदर्भ से भी अहिंसा को समझा गया। आज के जिस आक्रामक विकास के दौर से हम गुजर रहे हैं, उसमें संगठित हिंसा के लिए भी बड़ी जगह और एक तरह की मानसिक वैधता की स्वीकृति बनती जा रही है। किसी भी व्यक्ति. समूह या समुदाय के जीवन-स्तर में आत्मिक विकास के अवसर की संभावनाओं को अवरुद्ध नहीं करना ही अहिंसा है। गाँधी जिस परिप्रेक्ष्य में अहिंसा को जरूरी मूल्य के रूप में अपने राजनीतिक व्यवहार में शामिल कर रहे थे उस परिप्रेक्ष्य में एक की वंचना दूसरे के विकास की बुनियादी शर्त्त बनने लगी थी। प्रकृति चक्र में एक जीव दूसरे का भोज्य होता है। कहने में बहुत ही बुरा लग रहा है परंतु प्रकृति चक्र का यह सिद्धांत अपने निकृष्टतम रूप में मानव संस्कृति में और भयानक ढंग से सक्रिय है। सांस्कृतिक रूप से अहिंसा की तरफ बढ़ना बहुत ही मुश्किल हो गया है। संस्कृति के निर्माण में गाँधी व्यवहार जिस राजनीतिक संस्कृति की जरूरत बता रहा था, वह राजनीतिक संस्कृति अंततः चल नहीं पाई। क्योंकि अब राजनीति अर्थनीति से तय होने की दिशा में तेजी से बढ़ गई। आम नागरिक के जीवन की भौतिक जरूरतों को पूरा करने और मुनाफा में संतुलन की व्यवस्था राजनीति का दायित्व हो गया। राजनीति पर अर्थनीति के नियंत्रण का नतीजा यह कि पलड़ा मुनाफा का भारी होता जा रहा है। इस संतुलन का कायम रखने के लिए गाँधी के अहिंसा विचार की खास जरूरत है। असंतुलन सामान्य नागरिक जीवन को ही दुर्भर नहीं बनाता है बल्कि पूँजीवाद को भी दुर्निवार अंतर्ध्वंस की परिस्थितियों में धकेल देता है। इसलिए गाँधी का अहिंसा विचार मनुष्य की परस्पराश्रयी सभ्यता में संतुलन का संदेश है। अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस 02 अक्तूबर का यही संदेश है और इसे इस रूप में पढ़ा जाना चाहिए।

अहिंसा और वैचारिक विसंगतियांः जनसत्ता 

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