दुष्चक्र से निकलना मुश्किल तो है, पर असंभव नहीं नागरिक जमात के लिए
सर्वोच्च न्यायलय ने हाल की टिप्पणी में न्यायिक अति सक्रियता से बचते हुए तथा कार्यपालिका की गरिमा के अनुकूल बहुत ही सार्थक एवं संतुलित बात कही है। निश्चित रूप से प्रधामंत्री और मुख्यमंत्रियों के संवैधानिक एवं नैतिक व्यवहार पर भरोसा करना ही चाहिए। ऐसे किसी भी व्यक्ति को मंत्रीमंडल या मंत्रीपरिषद में शामिल नहीं करना चाहिए जो आपराधिक मामलों में संदेह के घेरे में हैं। न्यायिक टिप्पणी में संवैधानिक उम्मीद की बात बहुत ही सफाई से कही है और बाकी सबकुछ को प्रधानमंत्री के विवेक पर छोड़ दिया गया है, इस सावधानी के साथ कि वे न तो 'उससे ज्यादा कुछ' कह रहे हैं न 'उस से कुछ कम' ही कह रहे हैं। इसे बहुत ही गंभीरता से पढ़े जाने की जरूरत है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, जनप्रतिनिधि इस पाठ की ओर ध्यान देंगे। नागरिक समाज के लिए भी इस न्यायिक मंतव्य का पाठ महत्त्वपूर्ण है। सामान्य तौर पर मंत्री बनने की बात तो चुनाव जीतने के बाद उठती है। चुनाव जीतकर जनप्रतिनिधि बनने के पहले आपराधिक पृष्ठभूमिवाले लोग विभिन्न राजनीतिक दलों के अधिकृत उम्मीदवार बनते हैं। राजनीतिक दल कई कारणों से उन्हें अपना अधिकृत उम्मीदवार बनाता है, कई बार न चाहकर भी। जनता का समर्थन पाकर वे जनप्रतिनिधि बनते हैं। इन चुने हुए सांसदों और विधायकों का बहुमत हासिल करने के बाद ही कोई प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनता है। यहाँ बात ध्यान में रखने की जरूरत है कि किसी सांसद या विधायक को मंत्री बनाना प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार तो है, लेकिन किसी का प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनना भी तो सांसदों या विधायकों के बहुमत से ही संभव होता है। ऐसा बताया जाता है कि 541 सांसदों में 34 प्रतिशत सांसद आपराधिक पृष्ठभूमिवाले हैं। प्रधानमंत्री बनने के लिए 50 प्रतिशत सांसदों का समर्थन ही काफी होता है। इन 34 प्रतिशत आपराधिक पृष्ठभूमिवाले सांसदों की दलीय संपृक्ति के असर की बारीकियों में न भी जायें तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि क्यों कोई प्रधानमंत्री चाहकर भी अकेले इनको दरकिनार नहीं कर सकता। इसी तरह से, समझा जा सकता है कि जब इतने बड़े पैमाने पर अपराध का समाजीकरण हो रहा है तो, राजनीतिक दलों के पास अपने अस्तित्व की रक्षा करने और प्रासंगिकता को बनाने एवं बचाने के लिए आपराधिक पृष्ठभूमिवाले लोगों को स्वीकार करने की क्या मजबूरी है। यही है दुष्चक्र, जिससे बाहर निकलना आसान नहीं है।
दुष्चक्र से बाहर निकला कठिन चाहे जितना भी हो इसे असंभव नहीं माना जा सकता। इस पूरे प्रसंग को चुनाव सुधार की नागरिक प्रक्रिया की नजर से देखना चाहिए, जबकि हम चुनाव सुधार की प्रक्रिया को राजनीतिक प्रक्रिया की दृष्टि से देखने के ही अभ्यासी हैं। यहाँ यह सवाल बहुत महत्त्वपूर्ण है कि क्या हम अपने अभ्यास को बदल नहीं सकते! मेरा ख्याल है बदल सकते हैं। बदलाव की प्रारंभिक जड़ता की परिणतियों की अवरुद्धताओं के सांगोपांग को ध्यान में रखते हुए भी मेरा ख्याल है कि नागरिक जमात हर प्रसंग को राजनीतिक नजरिये से देखने के अपने अभ्यास को बदल सकता है और नागरिक जमात की नजर से परखने का नया अभ्यास प्रारंभ कर सकता है। हालाँकि नागरिक जमात के काम करने के तरीके का हमारा हालिया अनुभव बहुत सुखद नहीं है। भ्रष्टाचार के खिलाफ नागरिक जमात के दबाव का चुनावी राजनीति में निवेश बहुत खतरनाक साबित हुआ। फिर भी प्रयास तो किया ही जा सकता है, क्योंकि इस दुष्चक्र से बाहर निकले का रास्ता नागरिक जमात के वैयक्तिक सोच की सामूहिक गलियों से होकर ही निकलता है। इसके साथ ही कुछ और बातों का ध्यान रखना चाहिए ▬▬ नागरिक जमात न तो रष्ट्रीय जमात होता है और न ही राजनीतिक जमात होता है। राष्ट्रीय होना भी राजनीतिक होना है; बिना राजनीतिक हुए राष्ट्रीय हुआ ही नहीं जा सकता है। नागरिक होना भी राजनीतिक होना है लेकिन दोनों में महत्त्वपूर्ण अंतर है। नागरिक होने का सामाजिक/ सामुदायिक बोध नागरिक को सत्ता की राजनीति के खास संदर्भ में अ-राजनीतिक होने को संभव कर लेता है। जबकि, राष्ट्रीय होना नागरिक होने के सामाजिक/ सामुदायिक बोध को समाप्त नहीं भी तो निष्क्रिय अवश्य ही कर देता है और नागरिक के सत्ता की राजनीति के ही खास संदर्भ में राजनीतिक होने को संभव कर देता है।इस अर्थ में फिर याद करना जरूरी है कि नागरिक जमात न तो रष्ट्रीय जमात होता है और न ही राजनीतिक जमात होता है। हमारे नागरिक जमात के काम करने में ये दोनों ही बात सक्रिय थी ▬▬ इसे राष्ट्रीय जमात के रूप में संगठित करने की लालसा और राजनीतिक जमात में बदल जाने की दुर्बलता से बचाना हमारे लिए संभव नहीं हुआ।
आगे यदि, नागरिक जमात अपने अनुभव से सीखते हुए समाज-स्थानिक स्तर पर जुटने की कला सीख लेता है और संगठित राजनीतिक जमात में बदल जाने की दुर्बलता से बचने का रास्ता खोज लेता है तो न्यायिक टिप्पणी में जिस संवैधानिक उम्मीद को प्रधानमंत्री के विवेक पर छोड़ दिया गया है, उस संवैधानिक उम्मीद को प्रसन्न किया जा सकता है। जरूरी है कि नागरिक जमात न्यायिक टिप्पणी में उल्लिखित संवैधानिक उम्मीद को नागरिक नजरिये से पढ़े। यह एक नागरिक चिंता है, यही इसकी ताकत भी है और कदाचित सीमा भी। क्या कहते हैं!
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