जश्न - ए-आजादी में हूँ शरीक जरूर
मगर भुलाये नहीं बनता कि हम ने
कई बेड़ियाँ बनाई अपनों के लिए
कबूल हो दिल से कि उन जज्बातों को
भूलते चले गए जो थे जरूरी बहुत पुर-अम्न आजादी के सपनों के लिए
बात बढ़ाने का फायदा ही क्या मुख्तसर यह कि हम मुफीद बनते चले गए चाहे जैसे भी हो मुमकिन आजादी में अड़चनों के लिए
न ख्वाबों को जिलाये रख सके न हकीकतों और ना ही हकों के लिए कुछ खास कर सके, न बहुवचनों के लिए
जब संवेदनशीलता ही चुक गई तो संवाद क्या सब कुछ समर्पित होना ही था बेशर्म बतकुच्चनों के लिए
जश्न - ए-आजादी में हूँ शरीक जरूर
मगर भुलाये नहीं बनता कि हम ने
कई बेड़ियाँ बनाई अपनों के लिए
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