मंगलवार, 7 जुलाई 2015

विकास का मतलब

भारत जब आजाद हुआ तो इसके समक्ष कई चुनौतियाँ थीं लेकिन आर्थिक विकास की चुनौती सबसे भारी थी। आर्थिक विकास के लिए दो चीजों की आवश्यकता थी, पहली योजना की और दूसरी उस योजना पर अमल करने के लिए आवश्यक धन की। योजना का ढाँचा पंचवर्षीय योजना के रूप में एक मॉडल तो मिल गया, लेकिन धन की आवश्यकता तो कर्ज से ही पूरी हो सकती थी। यह कर्ज भी तभी हितकर हो सकता था जब कठोर राजस्व अनुशासन का पालन उतनी ही कठोर नैतिक दृढ़ता से होता। कर्ज तो कठिन-आसान शर्त्तों पर मिल गया लेकिन राजस्व अनुशासन का पालन नैतिक दृढ़ता से नहीं हो पाया। हम ऋण की राशि का भी भोग-उपभोग करने से अपने को बरज नहीं पाये। प्रेमचंद ने कहा था, कर्ज वह मेहमान है जो एक बार आ जाता है तो फिर आसानी से जाता नहीं है। महात्मा गाँधी ने इशारा किया था कि अपनी आवश्यकता को शून्याभिमुखी बनाना जरूरी है, हमने इस पर कान नहीं दिया। कर्ज के माध्यम से विकास के जिस पिछलन भरे रासते पर हम चल पड़े, वह नैतिक, राजनीतिक, सामाजिक और यहाँ तक कि आर्थिक पतन की ओर हमें तेजी से ले गया। एक करुण उदाहरण के तौर पर देखें कि कैसा है यह दुश्चक्र! किसान आत्महत्या पर मजबूर क्यों होता है? जवाब है, कर्ज के दबाव के कारण। इससे मुक्ति का रास्ता क्या है? जवाब है, कर्ज उपलब्ध करवाया जाये। आज विकास का मतलब कर्ज हो गया है! जब चार्वाकों ने ऋण लेकर घी पीने की बात कही थी तो, अभिप्राय यह नहीं था। 

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