वह आशंकाओं के काँटे
तीखे होते जा रहे हैं
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जिस दिशा में स्थितियां गतिशील हो रही है वह सामान्य नहीं लक्षण नहीं है। सत्ता, विभिन्न प्रकार की और बहुस्तरीय सत्ताओं के गलियारों में चल रही अंदरुनी चालबाजियों और बाहरी गतिविधियों से जो संकेत संवाद माध्यम से (इनकी कतिपय सीमाओं और रणनीतियों के बावजूद) मिल रहे हैं वे स्थिति के तेजी से असामान्य होते जाने की आशंकाओं को पुष्ट करते प्रतीत होते हैं। संवैधानिक संस्थाओं की जनपक्षीय संवेदनशीलता भारी नैतिक गिरावट के व्यूह में पहुंचती जा रही है। संवैधानिक रूप से आंतरिक आपातकाल की घोषणा न भी हो, कार्यशैली में आपातकालीन कार्यशैलियों और स्वेच्छाचारिताओं का प्रभाव तो झलक ही रहा है। शायद, स्थिति उस से और भी भयानक है जितनी की आशंका लालकृष्ण आडवाणी व्यक्त कर रहे हैं। इसलिए कि यह 20 वीं नहीं 21 वीं सदी है। ध्यान में होना चाहिए कि 20 वीं सदी में जनतांत्रिक गुणवत्ता के प्रति जन आस्था शिखर पर थी, जबकि 21 वीं सदी में जनतांत्रिक गुणवत्ता के प्रति जन आस्था में भयावह गिरावट है। यह जनतांत्रिक गुणवत्ता के प्रति जन आस्था में भयावह गिरावट का ही एक सामान्य लक्षण है कि लगभग सभी (70 में 67) सीट पर जीत हासिल कर सरकार बनानेवाली राजनीतिक पार्टी की अंदरुनी कमजोरियों की बाहरी दुर्गति इतनी जन प्रतिक्रया विहीन है! आशंकाओं के काँटे तीखे होते जा रहे हैं। क्या कहते हैं!
अफसोस!
सिक्का का दोनो पहलू खोटा है
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सही बात तो यह है कि अन्य बातों के अलावा, नागरिक जमात की संभावनाओं के सत्ता के राजनीति में त्रासद पर्यवसान उनके नाम दर्ज है। लेकिन इन बातों से उनके दल के खिलाफ जिस तरह से प्रतिशोधी आचरण किया जा रहा है वह संवैधानिक और जनतांत्रिक तो क्या राजनीतिक रूप से भी सही और शुभप्रद नहीं है। मुश्किल यह कि सिक्का का दोनो पहलू खोटा है!
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