गुरुवार, 7 मई 2015

टूअर सच, हम और हमारा उरढ़ता हुआ झूठ

जवानी होती तो मर मिटता 
बुढ़ापे में तो ढंग से मरा भी नहीं जाता
कितने खुश थे हम उन दिनों
जिंदगी के शुक्रगुजार थे और अपने होने में थे निहाल
हम रिश्ते को जीते रहे, इस कदर खुशी थी बेमिशाल
वे दिन भी कितने सतरंगी थे, 
इंद्रधनु की तरह तनी हुई विनम्रता से संतृप्त
जब कुछ झूठ तुम्हारे शामिल थे और बहुत सारे मेरे भी
इस तरह चारों तरफ थी हरियाली और हरियाली
टूअर सच का एक टूटा टुकड़ा बिलखता हुआ 
जाने किस अबांछित दिशा से आया 
आया और हमारे झूठ को उराढ़ने में कामयाब होने लगा
सबसे बड़ी मुसीबत यही है हमदम कि अब इस उम्र में 
हमारे झूठ को उराढ़ने में टूअर सच का टुकड़ा कामयाब होने लगा है
और अब ये टूअर सच, हम और हमारा उरढ़ता हुआ झूठ 
कितना भयावह है इन सबके साथ होना और दिखना

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