समांतर, जनसत्ता 24 मार्च 2015: उम्मीद का आकाश
स्तब्धकारी असंतुलित बहुमत के साथ सत्ता में आई आम आदमी पार्टी के अंदर घमासान जारी है। साबित हो रहा है, बेहाल होते हैं हम जिसके अभाव से, उसके प्राचूर्य से भी कम परेशान नहीं होते हैं। जब नहीं होता कोई विरोध तो विरोध अपने अंदर से पैदा होता है। चुनौतियाँ हमें एक करती हैं, खतरे हमें साथ बनाये रखते हैं। चुनौतियों और खतरे का एहसास न रहे, तो हम एक साथ नहीं रह पाते हैं। वैसे, सबसे बड़ा खतरा तो यही हो गया कि ‘अराजनीतिक नागरिक जमात’ शासक दल में बदल गया और नागरिक जमात अपनी संभावनाओं के भँवर में छिन्न-भिन्न हो गया। फिर भी, यदि आम आदमी पार्टी इस अभूतपूर्व विपक्षहीनता में सकारात्मक ढंग अपने विपक्ष का रचाव करने में सफल होने की संभावनाओं को घटना में बदल लेने में कामयाब होती है, तो यह भारतीय जनतंत्र की संरचनागत सफलताओं की मिसाल होगा। संगठित राजनीतिक दल में अपने विपक्ष के रचाव की संभावना लगभग न के बराबर होती है। आखिर आम आदमी पार्टी में अभी तक संयोजक ही काम कर रहा है, कोई अध्यक्ष, चेयरपर्सन नहीं तो इसका अर्थ समझा जाना चाहिए।
स्तब्धकारी असंतुलित बहुमत के साथ सत्ता में आई आम आदमी पार्टी के अंदर घमासान जारी है। साबित हो रहा है, बेहाल होते हैं हम जिसके अभाव से, उसके प्राचूर्य से भी कम परेशान नहीं होते हैं। जब नहीं होता कोई विरोध तो विरोध अपने अंदर से पैदा होता है। चुनौतियाँ हमें एक करती हैं, खतरे हमें साथ बनाये रखते हैं। चुनौतियों और खतरे का एहसास न रहे, तो हम एक साथ नहीं रह पाते हैं। वैसे, सबसे बड़ा खतरा तो यही हो गया कि ‘अराजनीतिक नागरिक जमात’ शासक दल में बदल गया और नागरिक जमात अपनी संभावनाओं के भँवर में छिन्न-भिन्न हो गया। फिर भी, यदि आम आदमी पार्टी इस अभूतपूर्व विपक्षहीनता में सकारात्मक ढंग अपने विपक्ष का रचाव करने में सफल होने की संभावनाओं को घटना में बदल लेने में कामयाब होती है, तो यह भारतीय जनतंत्र की संरचनागत सफलताओं की मिसाल होगा। संगठित राजनीतिक दल में अपने विपक्ष के रचाव की संभावना लगभग न के बराबर होती है। आखिर आम आदमी पार्टी में अभी तक संयोजक ही काम कर रहा है, कोई अध्यक्ष, चेयरपर्सन नहीं तो इसका अर्थ समझा जाना चाहिए।
इस समय मोटे तौर पर नागरिक जमात सन्नाटे में हैं। अण्णा आंदोलन के दौरान आकार पाये नागरिक जमात के राजनीतिक दल में बदल जाने के कारण लगे झटका से अभी नागरिक जमात उबर नहीं पाया है। यह पहले भी हुआ है। महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चला भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष अपने मूल चरित्र में नागरिक जमात का ही संघर्ष था। धीरे-धीरे काँगरेस जिस अनुपात में एक राजनीतिक दल में बदलती चली गई उसी अनुपात में काँगरेस में गाँधी राजनीति के लिए जगह कम होती चली गई। इस क्रम में गाँधी काँगरेस से बाहर हो गये और काँगरेस गाँधी विचार के प्रभाव से बाहर। महात्मा गाँधी के मत और कार्य पद्धति से उस समय के महत्त्वपूर्ण लोगों का गंभीर मत भेद था। इस गंभीर मत भेद के बावजूद न तो महात्मा गाँधी उन लोगों के लिए सर्वथा उपेक्षणीय बन गये और न महात्मा गाँधी के लिए वे लोग अन्यथा हो गये। महात्मा गाँधी की कार्य पद्धति से देर तक और दूर तक जुड़े लोग नागरिक जमात के रूप में सक्रिय रहे। उनकी अपनी स्वाभाविक कमियाँ थीं। इन कमियों के बावजूद महात्मा गाँधी की कार्य पद्धति से जुड़े नागरिक जमात का अपने समय के राजनीतिक जमात से द्वंद्वात्मक रिश्ते की सकारात्मकता बची हुई थी। यह भी सच है कि एक और, काँगरेस के कुछ बड़े लोग महात्मा गाँधी की कार्य पद्धति से जुड़े नागरिक जमात को काँगरेस से नत्थी मानकर चल रहे थे। दूसरी और, महात्मा गाँधी की कार्य पद्धति से जुड़े नागरिक जमात के भी कई लोग अपनी इस नियति की करुण भविष्य लिपि को पढ़ रहे थे। अंततः काँगरेस की नीतियाँ अपने से जुड़े या अपने साथ विकसित नागरिक जमात को निष्प्रभ करती चली गई। एक बार जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में जो आंदोलन चला वह अपने आंतरिक चरित्र में नागरिक जमात की ही अभिव्यक्ति था। लगातार हो रहे छोटे-छोटे सामाजिक आंदोलन अपने प्रारंभ में नागरिक जमात की आकांक्षा के रूप में ही विकसित होते हैं। हालाँकि, ये सामाजिक आंदोलन कदम-दो-कदम चलते ही किसी न किसी संगठित राजनीतिक दल से जाने-अनजाने नत्थी हो जाते हैं। अपरिपक्व सामाजिक आंदोलन के संगठित राजनीतिक दल में बदल या उससे नत्थी हो जाने से नागरिक जमात को भारी धक्का लगता रहा है। नागरिक जमात के उभार का तो हमें थोड़ा-बहुत अनुभव है, लेकिन उसे राजनीतिक जमात में बदल जाने से रोकने का कोई अनुभव नहीं है।
विराजनीतिकरण की और बढ़ते समय में नागरिक जमात के सन्नाटे को तोड़ना बहुत जरूरी है। हालाँकि, अण्णा आंदोलन में उभरे नागरिक जमात के बाद में राजनीतिक दल में बदल जाने से नागरिक जमात की विश्वसनीयता को बहाल करना काफी कठिन हो गया है। आनेवाले दिनों में हमारी आंतरिक संरचना में नये किस्म के तनाव के उभार के साथ ही पुराने अंतर्विरोध की अति सक्रियता से भी परेशानी बढ़ने की गहरी आशंका है। इससे आशंका से निबटने में नागरिक जमात की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। आशंकाएँ क्या हैं! आशंकाएँ हैं, सांप्रदायिक, सामुदायिक, लैंगिक, आर्थिक, राजनीतिक बहिष्करण और असहिष्णुता। देश के विभिन्न संप्रदायों और समुदायों के बीच परस्पर अविश्वास बढ़ रहा है। इनके हितों के टकराव की स्थिति में सरकारों की संतुलनकारी भूमिका की जरूरत जितनी बढ़ रही है उसी अनुपात में अपनी संतुलनकारी भूमिका से पीछे हटने या किसी एक के पक्ष में खड़े होकर असंतुलन बढ़ाने की प्रवृत्ति भी शासक वर्ग में बढ़ रही है। आतंकवाद का कारण, इतिहास, संस्कृति, जनता, जनतांत्रिक संस्थाएँ वित्तीय जनतंत्र, वृद्धि और विकास, मानवाधिकारों से जुड़े व्यापक मामलों, पर्यावरण के क्षरण, विस्थापन और पुनर्वास सहित कई प्रसंग हैं जहाँ नागरिक जमात की बड़ी भूमिका है। किसी भी अर्थ में, सिर्फ चुनावी या सत्ता-संघटन की प्रक्रियाओं से जुड़े मुद्दे तक नागरिक जमात की भूमिका को सीमित मान लेना युक्तिसंगत नहीं है।
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