बहुत ज्यादा शोर मचाये बिना अपना काम करनेवालों के लिए
कैलास सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार मिलना हौसले का हुलास है
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कैलास सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार मिलना हौसले का हुलास है
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साल याद नहीं। शायद 1991। कटिंग क्या, किताब भी सम्हाल कर रखने का शऊर नहीं है। लेकिन एक बात याद है। रुरल रिपोर्टिंग के लिए स्टेटमैन अखबार की तरफ से साालाना पुरस्कार दिये जाने का रिवाज रहा है। इस अवसर पर आयोजित डिवेट भी कोलकाता के बुद्धिजीवियों की दिलचस्पी का हिस्सा रहा है। उस साल डिवेट में भाग लेने के लिए आमंत्रित थे ▬ माधव राव सिंधिया, गोविंदाचार्य और शाहबुद्दीन। उस साल रुरल रिपोर्टिंग के लिए स्टेटमैन अखबार की तरफ से साालाना पुरस्कार मिला था अदीति कपूर को। उनकी रिपोर्टिंग भदोही के कालीन कारोबार में लगे बंधुआ बाल मजदूर की मुक्ति के लिए किये गये एक अभियान से संबंधित थी। अपने मित्र विजय शर्मा को सौजन्य से अदीति कपूर से बात करने का अवसर मिला था। उन्होंने इस अभियान के संदर्भ में बात करते हुए स्वामी अग्निवेश और कैलास सत्यार्थी की चर्चा की थी। तब जनसत्ता के कोलकाता संस्करण से जुड़े अरविंद चतुर्वेद (Chaturved Arvind) रविवारीय पुस्तिका 'सबरंग' के संपादन का काम देखते थे। उन्होंने अदीति कपूर के साथ हुई बात को आग्रहपूर्वक 'सबरंग' में छापा था।
आज जब कैलास सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार मिला है, तो स्वाभाविक रूप से उस घटना की याद आ गई। सच है, कैलासजी को कम ही लोग जानते होंगे। अभी मंगल की कक्षा में 'भारत का रथ' पहुँचा है उसे तैयार करनेवाले अपने वैज्ञानिकों को जाननेवाले कितने हैं! हम क्रिकेट, राजनीति, फिल्म, मीडिया, कुछ हद तक साहित्य आदि से जुड़े लोगों के अलावे और किसे कितना जानते हैं...! कैलासजी को कम ही लोग जानते हैं यह दुखद भी है और सुखद भी। दुखद यह कि हम समाज हित के कार्य में लगे लोगों को कितना कम जानते हैं! सुखद यह कि बहुत ज्यादा शोर मचाये बिना अपना काम करनेवालों के काम को भी, यदा-कदा ही सही, महत्त्व मिल जाता है। बहुत ज्यादा शोर मचाये बिना अपना काम करनेवालों के लिए कैलास सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार मिलना हौसले का हुलास है। बधाई, नोबेल लॉरिएट कैलास सत्यार्थी को बहुत-बहुत बधाई!
अभी-अभी अमरीका में भारत की जिन तीन महत्त्वपूर्ण का उल्लेख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया है, उन में से एक है भारत की युवा शक्ति। जिस देश के बचपन का अधिकांश भूखा हो उस देश के यौवन के अधिकांश में समाज सार्थक हौसले के हुलास की संभावना बहुत कम होती है। ऐसे में 'बचपन बचाओ' जैसे अभियान का क्या महत्त्व होता है उसका हम सिर्फ अनुमान लगा सकते हैं! 'बचपन बचाओ' जैसे अभियान का क्या महत्त्व उस युवा को मालूम हो सकता है जिसका बचपन बंधक रहा हो, जो बंधुआ बाल मजदूर होने की नियति के आसपास रहा हो। समाज कैलास सत्यार्थी को चाहे जितना कम या ज्यादा जाने लेकिन महत्त्वपूर्ण यह है कि समाज बचपन को बचाते हुए उसे समाज सार्थक युवा में बदलने का अवसर देने के महत्त्व को पहचाने। नये भारत के निर्माण का रास्ता बचपन को इस तरह से बचाने के अभियान के महत्त्व को आत्मसात करने के बीच से ही निकलता है। इतना उपद्रवग्रस्त है हमारा अंतःकरण कि बचपन को इस तरह से बचाने के अभियान के महत्त्व को आत्मसात करना बहुत आसान नहीं है। इस कठिन घड़ी में यह उम्मीद का एक और आकाश है, यह रास्ते के संधान की एक और संभावना है। विकास की यह नई जमीन का अर्थपूर्ण संकेत है। याद कीजिये बुधिया को। बुधिया यानी युग-युग धावित यात्री को।
राजीव गाँधी प्रधानमंत्री थे। 1987 में आजादी के चालीस साल का जश्न का माहौल था। तब एक कविता लिखी थी ▬▬ आज भी जब छोटे-छोटे बच्चों को माँजते हुए चाय की प्याली देखता हूँ, देश का भविष्य औंधी हुई कड़ाही की तरह लगता है। इसे नुक्कड़ नाटक के समय कोलकाता के साथियों के साथ पढ़ा जाता था। जो लोग उन्नत भारत की बात करते हैं उन्हें जब ऐसे बच्चे दिखें तो थोड़ी देर के लिए ही सही पर सहम जाना चाहिए, जिन बच्चों के बचपन को बचपन को बचाने के काम में कैलास सत्यार्थी और उनके साथी लगे हैं। कविता लिखने का यह भी एक तरीका है, शायद अधिक कारगर तरीका।
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